समाज की आवश्यकता के अनुसार हो कला का विकास
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रांची : समाज की आवश्यकता को ध्यान में रखकर कला का विकास करना चाहिए। जहा तक अर्थ का संबंध है, कला को साध्य और अर्थ को साधन के तौर पर देखना चाहिए। ये बातें दिल्ली विवि के पूर्व प्रोफेसर सुंदरी सिद्धार्थ ने कहा। वे रविवार को रांची विवि के पीजी संस्कृत विभाग द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में बोल रहे थे। इसका विषय डायवर्सिटी ऑफ शिल्प : थ्योरी एंड एप्लिकेशन था। कार्यक्रम की अध्यक्षता पद्मश्री प्रो. रमाकात शुक्ल व संचालन डॉ. शैलेश मिश्र ने किया।
कला का संबंध सृजनशीलता से
सुंदरी सिद्धार्थ ने कहा कि कलाएं अनंत हैं। इसका सीधा संबंध सृजनशीलता से है। इसलिए कला को पनपने के लिए कलाकार का उत्साहवर्धन किया जाना चाहिए। इससे देश के आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त होगा। विविध शिल्पों को आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने के लिए मेक इन इंडिया से जोड़ा जाना चाहिए।
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कला सृष्टि का अभिन्न अंग
उत्कल विवि के संस्कृत विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष प्रो. गोपाल कृष्ण दास ने कहा कि कला सृष्टि प्रक्रिया का अभिन्न अंग है। कलाओं में चैतन्य का समावेश हो जाता है। इस विद्या में सफलता के लिए रूप निर्माण की सामग्री, संकल्पित मन और निर्माण विधि का ज्ञान होना आवश्यक है। उन्होंने कहा कि संस्कृत विषय को माध्यमिक और उच्च माध्यमिक कक्षाओं में उचित स्थान मिलना चाहिए।
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कला योगक्षेम का साधन
पद्मश्री प्रो. डॉ. रमाकात शुक्ल ने कहा कि कला योगक्षेम का साधन है। कला अर्थकरी विद्या है। इसका आश्रय लेकर आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। शिल्प धर्मकार्य सिद्ध करने का साधन है। विशेष सत्र का संचालन डॉ. धनंजय बासुदेव द्विवेदी ने किया। सेमिनार के दूसरे दिन सौ से अधिक शोधपत्रों का वाचन हुआ।
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काव्यधारा से विभिन्न पक्षों को दिखाया
तकनीकी सत्र के बाद कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ। इसमें कवियों ने अपनी काव्यधारा के माध्यम से कला के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला। सामाजिक व्यवस्था को प्रतिबिंबित करने वाली कविताओं का पाठ किया। काव्यपाठ करने वालों में प्रो. बृजेश शुक्ल, प्रो. रामसुमेर यादव, प्रो. कौशलेन्द्र पाण्डेय, प्रो. रामाशीष पाण्डेय, डॉ. प्रयाग नारायण मिश्र, डॉ. चंद्रभूषण झा, पंडित रामानुग्रह शर्मा, डॉ. नीलिमा पाठक आदि थे।

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