दादी की कहानियों ने बना दिया लेखक : शकुंतला मिश्र
रांची : शकुंतला मिश्र वैसे तो आकाशवाणी से संबद्ध हैं, लेकिन उनकी एक अलग पहचान है। नागपुरी साहित्य में उनका नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। लिखने की शुरुआत तो बचपन से ही हो गई थी। दादी-मां से सुनी कहानियों ने संग्रह करने की प्रेरणा दी। सुनी कहानियों को जब कागज पर उतारा तो इन लोककथाओं के अनूठे संसार से परिचय हुआ। फिर क्या था? उसे भेज दिया छपने के लिए।
तब डालटनगंज से डा. वीपी केशरी 'जय झारखंड' नामक पत्रिका निकालते थे। जब पहली बार छपी तो बड़ा अच्छा लगा। इसके बाद तो फिर लगातार भेजने की फरमाइश भी आने लगी। केशरी जी ने खूब प्रोत्साहित किया। लोककथाओं का संकलन तो किया। इसके बाद कविताएं भी लिखने लगी। शकुंतला कहती हैं कि पलायन पर पहली कविता लिखी, 'नेहक डोइर' यानी नेह का डोर। इसमें बाहर गए लोगों की पीड़ा के साथ घर-परिवार की चिंता भी थी। 1982 में यह आकाशवाणी से भी प्रसारित हुई थी। इसी के आसपास सुखू कहानी डायन पर केंद्रित थी। यह डा. गिरिधारी राम गौंझू के संपादन में निकलने वाली पत्रिका पझरा में आई। एमए के जब फाइनल में पहुंची तो यह कहानी एमए के पाठ्यक्रम में शामिल हो गई। शायद यह पहला अवसर था जब किसी छात्रा की कहानी पाठ्यक्रम में शामिल हो गई हो। विद्यार्थी जीवन में ही 1983 में परदेसी बेटा भी छपा।
पिता जगेश्वर मिश्रा ने पढ़ने के लिए कई पत्र-पत्रिकाएं दीं। वही लिखने और भेजने के लिए उकसाते थे। अब वे नहीं हैं, लेकिन याद उनकी आज भी आती है। उनके प्रोत्साहन से ही मैं इस दिशा में आगे बढ़ी। मेरी दादी के पिता पदुमनाथ पाठक नागपुरी के पुराने कवियों में थे। उनकी कविताओं की चर्चा अक्सर घर पर होती। हो सकता है, इस चर्चा ने ही मुझे लिखने की प्रेरणा दी हो। लिखने का सिलसिला जारी है। पिछले दिनों सातो नदी पार उपन्यास आया। छपते ही यह उपन्यास बीए के पाठ्यक्रम में शामिल हो गया। पढ़ते समय ही नागपुरी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की पुस्तकें नहीं मिलती थीं। इस समस्या से हम ही नहीं, अनेक छात्र-छात्राएं परेशान थे। मेरे घर में ही पला-बढ़ा-पढ़ा बालू खेरवार को जब कहीं काम नहीं मिला तो उसे प्रकाशन करने की जुगत बताई। उससे कहा, गांव-गांव कवियों-लेखकों की पांडुलिपियां एकत्रित करो, इसे प्रकाशित किया जाएगा। 2007 में झारखंड झरोखा के नाम से एक दुकान ली गई। इस नाम से पुस्तक प्रकाशन भी शुरू हुआ। कवियों-लेखकों का खूब सहयोग मिला और आज भी मिल रहा है। अब तक करीब सौ से ऊपर किताबें झारखंड झरोखा से प्रकाशित हो चुकी हैं। तीस किताबें दिल्ली में छप रही हैं। शकुंतला कहती हैं कि झारखंड झरोखा आदिवासी साहित्य और झारखंड पर किताबों का एक नामचीन दुकान हो गया है। यह सब बाूल खेरवार की मेहनत का परिणाम है। हालांकि एक चिंता यह अवश्य है कि उनकी किताबों को लेकर झारखंड सरकार बड़ा ही उदासीन है। राज्य की सरकार को इस दिशा में भी पहल करनी चाहिए।