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    राष्ट्रपति ने किया सम्मानित, अब सिर पर ईंटें ढो रही बिरहोर ग्रेजुएट; तस्वीरों ने किया दिल दुखी

    झारखंड की बिरहोर समुदाय की स्नातक रश्मि बिरहोर को राष्ट्रपति से सम्मानित होने के बावजूद नौकरी नहीं मिली है। मजबूरन वह परिवार का पेट पालने के लिए मजदूरी कर रही है। यह घटना सरकारी दावों और जमीनी हकीकत के बीच की खाई को उजागर करती है जहाँ शिक्षा और सम्मान भी गरीबी से मुक्ति नहीं दिला पा रहे हैं।

    By Tarun K Bagi Edited By: Chandan Sharma Updated: Tue, 26 Aug 2025 05:23 PM (IST)
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    विभावि हजारीबाग से ग्रेजुएशन, परिवार चलाने के लिए सिर पर ढो रही है ईट।

    मो. सेराज, घाटो (रामगढ़)। एक तरफ राष्ट्रपति का सम्मान, दूसरी तरफ सिर पर ईंटों का बोझ। झारखंड की रश्मि बिरहोर की कहानी उम्मीद और निराशा के बीच एक गहरी खाई को दर्शाती है।

    आदिम जनजाति बिरहोर समुदाय की 23 वर्षीय रश्मि ने तमाम बाधाओं को पार कर बीए की डिग्री हासिल की थी। यह उसके और उसके परिवार के लिए बड़ी उपलब्धि थी, जो गरीबी की बेड़ियों को तोड़ने का सपना देख रहे थे।

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    जब उम्मीद ने दी दस्तक

    2024 में जब रश्मि ने विनोवा भावे विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री ली, तो न सिर्फ उसके माता-पिता, बल्कि पूरा समुदाय खुशी से झूम उठा। उसकी मेहनत और लगन को देखते हुए उसे रांची राजभवन में स्वयं राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सम्मानित किया। यह क्षण रश्मि के लिए एक नया सवेरा लेकर आया था।

    उसे उम्मीद थी कि अब उसकी डिग्री उसे एक सम्मानजनक नौकरी दिलाएगी और वह अपने माता-पिता का सहारा बनेगी।

    सपनों का कड़वा सच

    लेकिन सम्मान की चमक जल्द ही फीकी पड़ गई। एक साल तक नौकरी की तलाश में भटकने के बाद भी जब कोई रास्ता नहीं मिला, तो रश्मि के कंधों पर मजबूरी का बोझ आ गया। आज उसकी शिक्षा की डिग्री अलमारी में बंद है और वह परिवार का पेट पालने के लिए दिन-भर ईंटें ढोने का काम करती है।

    अपनी मां को भी मजदूरी करते देख उसके दिल से 'खून के आंसू' निकलते हैं। वह कहती है कि उसकी सारी मेहनत और उम्मीदें पैसे के आगे हार गईं।

    दबे हुए सपने, टूटती दीवारें

    रश्मि की कहानी केवल उसकी नहीं है, बल्कि उसके परिवार की भी है, जो सालों से बदहाली में जी रहा है। 13 साल पहले मकान के लिए मिला पैसा अधूरा रह गया और अब उनका कच्चा मकान बारिश के कारण दरारें पड़ने से टूट रहा है।

    पिछले तीन दिनों से पूरा परिवार डर के मारे घर के बाहर सोने को मजबूर है। स्थानीय जनप्रतिनिधियों से लेकर सरकारी अधिकारियों तक गुहार लगाई गई, लेकिन किसी ने उनकी सुध नहीं ली।

    यह घटना आदिम जनजातियों के उत्थान के सरकारी दावों पर एक बड़ा सवाल खड़ा करती है। क्या सम्मान और पुरस्कार केवल एक दिखावा हैं, या सच में सरकार इस वर्ग के प्रति गंभीर है? रश्मि बिरहोर की यह कहानी सिर्फ एक व्यक्ति का दुख नहीं, बल्कि उस पूरे समुदाय की टूटती उम्मीदों का दर्द है।

    संघर्ष पूर्ण हालात में बिरहोर

    बिरहोर का शाब्दिक अर्थ 'जंगल का आदमी' होता है। झारखंड की यह आदिम जनजाति विलुप्त प्राय है। इनकी पारंपरिक आजीविका जंगल से जुड़ी है, जिसमें छोटे जानवरों का शिकार करना और जंगली फल-शहद इकट्ठा करना शामिल है। बिरहोर समुदाय 'चोब' नामक पौधे की छाल से मजबूत रस्सियां बनाने की कला के लिए भी जाना जाता है।

    यह जनजाति छोटे-छोटे समूहों में रहती है, जिन्हें 'टांडा' कहा जाता है, और ये अक्सर भोजन की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते रहते हैं। वनों की कटाई और पारंपरिक जीवनशैली में बदलाव के कारण बिरहोर समुदाय के सामने आजीविका का संकट खड़ा हो गया है। इसी वजह से कई बिरहोर परिवार मजदूरी करने और मुख्यधारा की दुनिया में अपने लिए जगह बनाने को मजबूर हो रहे हैं।

    रश्मि बिरहोर की कहानी इसी संघर्ष का एक दुखद उदाहरण है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में बिरहोर जनजाति की कुल जनसंख्या 17,241 थी। इसमें से सबसे बड़ी आबादी झारखंड में निवास करती है, जहां इनकी संख्या 10,726 थी। छत्तीसगढ़ में इनकी जनसंख्या 3,104 थी, जबकि ओडिशा में यह संख्या 596 थी।