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    मातृभाषा की महत्ता निबंध ने झकझोरा था लाको बोदरा को

    By Edited By: Updated: Mon, 19 Sep 2011 01:01 AM (IST)

    दिनेश शर्मा, चक्रधरपुर : 'जिस समाज व जाति की अपनी लिपि नहीं उस समाज के लोग बिना पूंछ के पशु के समान हैं। वह समाज उस सुंदर भिखारिन के समान है, जो घर घर नंगे भीख मांगी फिर रही हो' यह पंक्तियां महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'मातृभाषा की महत्ता' नामक निबंध में लिखी हैं। इन पंक्तियों ने 'हो' भाषा की वारंग क्षिति लिपि के जनक कोल गुरू लाको बोदरा के अन्तर्मन को झकझोर डाला था और वे मात्र 14 वर्ष की आयु से ही 'हो' भाषा की लिपि तैयार करने में जुट गए थे। सिंहभूम जिले के खूंटपानी प्रखण्ड के ग्राम पासिया में 19 सितम्बर 1923 को लाको बोदरा का जन्म हुआ था। उनमें बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा थी। योध्या पीड़ के मानकी परिवार से जुड़े लाको बोदरा के पिता का नाम लेबिया बोदरा, माता का नाम जानो कुई था। किसान परिवार में जन्मे लाको पुर्णिया मध्य विद्यालय में सातवीं के छात्र थे। कक्षा में हिन्दी विषय के महावीर प्रसाद द्विवेदी की मातृभाषा की महता नामक निबंध की पढ़ाई हो रही थी। शिक्षक सभी छात्रों से यह अध्याय बारी-बारी पढ़वा रहे थे। लाको बोदरा की जब बारी आई, तो उन्होंने उल्लेखित पंक्तियों को पढ़ने से साफ इन्कार कर दिया। शिक्षक ने लाको से कहा कि 'हो' लोगों की कोई लिपि नहीं है। यह बात बालक लाको को चुभ गई और उन्होंने अपनी लिपि की खोज करने का संकल्प ले लिया। तत्पश्चात उन्हें चक्रधरपुर रेलवे में गैंगमैन पद पर कार्यरत उनके मामा ने चक्रधरपुर रेलवे मिडिल स्कूल में भर्ती किया। पढ़ाई में अव्वल लाको को इस विद्यालय में आने के बाद राजपरिवार (पोड़ाहाट) के कुंवर सिंह जैसे सहपाठियों का साथ मिला। वहीं गुलाम भारत के अंग्रेज छात्रों की संगत भी। विद्यालय की शिक्षिका मिस रोज लाको की प्रवीणता देख अंग्रेजी, हिन्दी एवं अन्य भाषाओं की विभिन्न पुस्तकें भी पढ़ने देती थीं। इस दौरान किशोर लाको बोदरा का मन लिपि निर्माण के शोध में लगा रहता था। लाको बोदरा को राजपुत्र कुंवर सिंह से भी किताबों की मदद मिली। मध्य विद्यालय से उत्तीर्ण होने के पश्चात वे जिला स्कूल चाईबासा में अध्ययन के लिए गये। इसी बीच द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया। अंग्रेजों की सेना में नये रंगरूटों को शामिल किया जा रहा था। जवानों को सेना में भर्ती कराने में जयपाल सिंह भी लगे हुए थे। पूरे भारतवर्ष का भ्रमण के लिए शुभ अवसर देख युवक लाको बोदरा जयपाल सिंह के साथ हो गये। इस दौरान उन्हे पूरे भारत का भ्रमण करने का मौका मिला। अखण्ड भारत के दौरे के क्रम में वे प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन के साथ ही मोहन जोदड़ो व हड़प्पा के खुदाई स्थल पर भी पहुंचे। खुदाई स्थल पर उन्हे आदिवासी संस्कृति की झलक मिली। खुदाई के दौरान मोहन जोदड़ो व हड़प्पा की लिपि का पता चला। आदिवासी संस्कृति के साथ मोहन जोदड़ो व हड़प्पा की सभ्यता व संस्कृति हूबहू मिलती थी। इसी संस्कृति व सभ्यता की लिपि को वे हो भाषा की लिपि के रूप में देखने लगे। लगातार शोध के पश्चात उन्होंने वारंग क्षिति लिपि की पांडुलिपि भी तैयार कर ली। भ्रमण के दौरान ही उन्होंने पंजाब प्रान्त के जालन्धर में जयपाल सिंह की मदद से विज्ञान स्नातक की डिग्री हासिल की। पंजाब में ही रहकर वे होम्योपैथी के डाक्टर भी बने। भारत भ्रमण के पश्चात घर वापस लौटकर रेलवे में नौकरी करने लगे। नौकरी उन्हे ज्यादा दिन रास नहीं आयी और त्यागपत्र दे दिया। इसी बीच जोड़ापोखर के केरसे मुण्डा ने लाको बोदरा को लिपि शोध संस्थान व हैम्योपैथी चिकित्सालय चलाने के लिए सात एकड़ जमीन दान में दी। कालक्रम में 1954 को जोड़ापोखर में एटे तुरतुंग आकड़ा नामक संस्था का गठन किया। इसी संस्था में कार्य करने वाले अन्य सदस्यों को लिपि के बारे में बताया, पुस्तकें भी लिखीं। संस्था द्वारा वारंग क्षिति लिपि का व्यापक प्रचार-प्रसार किया गया। 1976 को आदि संस्कृति एवं विज्ञान-संस्थान नाम से संस्था को रजिस्टर्ड कराया गया। इसी संस्था में ही लाको बोदरा ने हो हयम पयम पुति (द्विभाषी), शिशु हलाअ पोम्पो (अक्षर विज्ञान) कोल रूल (1959), एला ओल इतु उठा (1975) को हो भाषा परिषद शैक्षिक अनुसंधान, झींकपानी के माध्यम से प्रकाशित किया गया। आज भी उनकी लिखी कई पुस्तकें अप्रकाशित है। कोल गुरू लाको बोदरा का देहावसान 1986 में हुआ और इसी तरह एक चलता फिरता शिक्षा दीप सदा के लिए बुझ गया। वर्ष 1984 से रांची विश्वविद्यालय में हो भाषा वारंग क्षिति लिपि से पढ़ाई हो रही है।

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