झारखंड में दो जवानों के बलिदान का जिम्मेदार कौन? पलामू को नक्सल मुक्त घोषित करने की रिपोर्ट पर सवाल
जफर हुसैन के लेख में जपला (पलामू) में नक्सली हमले का वर्णन है जिसमें दो सिपाही शहीद हो गए। सवाल उठता है कि क्या पलामू को नक्सल मुक्त घोषित करने की रिपोर्ट सही थी क्योंकि सांसद और मंत्री ने पहले ही खतरे की चेतावनी दी थी। खुफिया विभाग की नाकामी और ऑपरेशन में चूक के कारण जवानों को जान गंवानी पड़ी।

जफर हुसैन, जपला (पलामू)। मनातू के केदल जंगल में बुधवार देर रात हुई मुठभेड़ ने पूरे पलामू को झकझोर दिया है। टीएसपीसी नक्सलियों और पुलिस के बीच हुई भिड़ंत में हैदरनगर के दो सिपाही संतन मेहता और सुनील राम शहीद हो गए, जबकि एक जवान जिंदगी और मौत के बीच जूझ रहा है।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि यह शहादत सिर्फ नक्सलियों की गोली से हुई या फिर उस सिस्टम की नाकामी से, जिसने खतरे के बावजूद आंखें मूंद लीं?
पलामू को नक्सल मुक्त घोषित करने की रिपोर्ट सवालों के घेरे में
पलामू और आसपास का इलाका झारखंड में नक्सलवाद का गढ़ रहा है। माओवादी से लेकर टीएसपीसी और जेजेएमपी तक यहां दशकों से सक्रिय रहे। 2024 में जब लगातार ऑपरेशन और बूढ़ा पहाड़ पर कैंप स्थापित हुआ, तो रिपोर्ट के आधार पर पलामू को नक्सल मुक्त घोषित कर दिया गया।
इसी रिपोर्ट के बाद सीआरपीएफ कंपनियां हटा ली गईं, एसआरई (स्पेशल रीजन एक्सपेंडिचर) फंड बंद कर दिया गया। लेकिन अब सवाल यह है कि क्या उस वक्त की रिपोर्ट वास्तविकता से कोसों दूर थी? किस आधार पर दावा किया गया कि पलामू में नक्सलवाद खत्म हो गया है, जबकि नक्सली धीरे-धीरे अपनी जमीन मजबूत करते रहे और पुलिस इनपुट लगातार फेल होते रहे?
सांसद और वित्त मंत्री ने पहले ही दी थी चेतावनी
सीआरपीएफ की 133 कंपनी हटाए जाने के समय ही स्थानीय सांसद विष्णु दयाल राम ने गृह मंत्रालय को पत्र लिखकर विरोध जताया था। उन्होंने साफ कहा था कि इतनी जल्दबाजी में कैंप हटाना आत्मघाती साबित हो सकता है। यही नहीं, हाल ही में वित्त मंत्री राधाकृष्ण किशोर ने गढ़वा में खुले मंच से चेतावनी दी थी कि एसआरई फंड बंद करना और जिले को नक्सल मुक्त मान लेना बड़ी गलती है।
उन्होंने यहां तक कहा था कि पिकेट हटाइए, तब असलियत दिख जाएगी कि कितने नक्सली बचे हैं। यह चेतावनी घटना से सिर्फ एक माह पहले आई थी। सवाल उठता है कि जब सांसद और मंत्री दोनों खुलकर कह रहे थे कि खतरा अभी खत्म नहीं हुआ, तब भी अधिकारियों ने क्यों अनदेखी की?
इंटेलिजेंस इनपुट क्यों फेल हुआ?
सूत्रों के मुताबिक पुलिस को इनपुट मिला था कि इलाके में नक्सली मूवमेंट है। इसके बावजूद ऑपरेशन में पुलिस की तैयारी नक्सलियों की तुलना में बेहद कमजोर साबित हुई। जवान मौके पर पहुंचे ही थे कि नक्सलियों ने अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी। तीन जवानों को गोलियां लगीं, जिनमें से दो ने शहादत दी।
यह साफ संकेत है कि या तो इनपुट अधूरा था या ऑपरेशन की प्लानिंग में गंभीर चूक हुई। दोनों ही हालात में जिम्मेदारी पुलिस अफसरों की बनती है। आखिर खुफिया नेटवर्क क्यों फेल हुआ? क्या स्थानीय सूत्रों से सही जानकारी जुटाने में लापरवाही हुई या फिर उसे हल्के में लिया गया?
नक्सली कमजोर जरूर, खत्म नहीं
नक्सल विशेषज्ञ लगातार कहते रहे हैं कि संगठन कमजोर जरूर हुए हैं, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं। उनकी रणनीति यही होती है कि बड़े ऑपरेशन के बाद कुछ समय चुप रहें और फिर अचानक हमला कर सुरक्षाबलों को चौंका दें। इस बार भी ठीक यही हुआ।
शायद नक्सली जानते थे कि पलामू को नक्सल मुक्त घोषित कर दिया गया है और पुलिस आत्मसंतोष में है। इसी आत्मविश्वास का फायदा उठाकर उन्होंने अचानक हमला कर दिया। सवाल यह है कि इतनी पुरानी रणनीति के बावजूद पुलिस ने सबक क्यों नहीं लिया?
आखिर शहादत का असली दोषी कौन?
अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि दो जवानों की शहादत का जिम्मेदार कौन है ? वह अधिकारी जिन्होंने गलत रिपोर्ट तैयार कर पलामू को नक्सल मुक्त घोषित कर दिया? वे बड़े अफसर जिन्होंने मंत्री और सांसद की चेतावनी को अनदेखा कर दिया?या फिर खुफिया तंत्र, जिसकी नाकामी से जवान सीधे नक्सलियों के निशाने पर आ गए?
दरअसल, जवानों की शहादत सिर्फ नक्सलियों की गोली से नहीं होती, बल्कि सिस्टम की खामियों से भी होती है। पलामू की इस घटना ने फिर साबित कर दिया है कि जब तक नक्सलवाद की जड़ें पूरी तरह नहीं उखड़ जाती, तब तक आत्मसंतोष और गलत रिपोर्ट जवानों की जिंदगी पर भारी पड़ती रहेंगी।

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