दुर्गा पूजा महोत्सव में अब नहीं सजता नाटकों का रंगमंच
तीन दशक पहले दुर्गा पूजा के अवसर पर नाटकों का रंगमंच सज
संवाद सूत्र, मरकच्चो (कोडरमा): तीन दशक पहले दुर्गा पूजा के अवसर पर नाटकों का रंगमंच सजाया जाता था। इसके माध्यम से स्थानीय कलाकार ऐतिहासिक चरित्रों के साथ धार्मिक घटनाक्रम पर आधारित नाटकों का मंचन खूब उत्साह के साथ करते थे। हालांकि, अब इनका चलन लगभग खत्म हो गया है।
पहले ग्रामीण इलाकों में मनोरंजन के क्षेत्र पर रंगमंच का ही कब्जा हुआ करता था। अब दुर्गा पूजा के उत्सव में रंगमंच का रंग फीका पड़ गया है। इसकी जगह सिनेमा, उसके बाद आर्केस्ट्रा ने ले ली है। 70 एवं 80 का दशक रंगमंच का सबसे अच्छा दौर था। उस वक्त ग्रामीण इलाकों में हर उत्सव के वक्त रंगमंच का रेशमी पर्दा लोगों के दिलोदिमाग में जगह बनाए हुए था। दुर्गा पूजा के वक्त तो रंगमंच का स्टेज उत्सव के आकर्षण का केंद्र हुआ करता था। कफन, सुल्ताना डाकू, राजा हरिश्चंद्र, लैला मजनू समेत कई चर्चित नाटकों के साथ रामायण और महाभारत के नाटक के मंचन ने समाज पर अमिट छाप छोड़ दी थी। दर्शक परदा गिरने तक रंगमंच के स्टेज से चिपके रहते थे।
समय बीतने के साथ मनोरंजन की बदलती बयार ने रंगमंच के रंग को फीका कर दिया है। 21वीं सदी आते-आते ग्रामीण इलाकों में त्योहार के दौरान मनोरंजन के क्षेत्र पर सिनेमा हावी होने लगा। बाद में आर्केस्ट्रा तथा अन्य मनोरंजन के कार्यक्रमों ने पैठ बना ली। आजकल शायद ही कहीं ग्रामीण क्षेत्रों में रंगमंच देखने को मिलता है। पुरुष करते थे महिला की भूमिका
वर्तमान दौर में रंगमंच के लिए महिला कलाकार आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। उस दौर में महिला कलाकारों की भूमिका पुरुषों को ही निभानी पड़ती थी। ऐसे कलाकारों के चयन में चेहरे को विशेष महत्व दिया जाता था। साथ ही उसकी आवाज का भी विशेष ध्यान रखा जाता था।
एक माह तक चलता था रिहर्सल
रंगमंच से जुड़े कलाकार मुकुल चंद्र प्रसाद बताते हैं, नाटक के मंचन के लिए पूरी तैयारी की जाती थी। एक माह पहले से संबंधित नाटक का रिहर्सल शुरू हो जाता था। स्टेज पर नाटक पेश करना सिनेमा से ज्यादा कठिन होता है। यहां किसी को रिटेक का मौका नहीं मिलता।
मरकच्चो में दो रंगमंच हुआ करता था पहला चित्रगुप्त नाट्य कला परिषद और दूसरा हंस वाहिनी क्लब। दोनों रंगमंच पर लोग मिलजुल कर नाटकों का मंचन किया करते थे।
मुकेश मोदी कोई भी नाटक खेलने के पहले नाटक किताब का चयन किया जाता था। इसके बाद किरदार का चयन किया जाता था। एक माह पहले से रिहर्सल शुरू हो जाता था। कोई अपना किरदार ठीक से नहीं निभा पाता तो उसे हटा दिया जाता था।
मुकुल चंद्र प्रसाद पहले नाटक काफी लोकप्रिय था, जिसे पर्व त्योहारों पर स्थानीय कलाकार पेश करते थे। उस समय मनोरंजन का और कोई साधन भी नहीं था। इसके लिए भी लोग पर्व त्योहार का इंतजार करते थे।
सुरेंद्र प्रताप सिंह। एक महीने पूर्व से कलाकार रिहर्सल शुरू कर देते थे। रोज रात में 3-4 घंटे की मेहनत की जाती थी। कलाकार कड़ी मेहनत कर अपने रोल को बेहतर तरीके से निभाने के लिए लग रहते थे।
प्रदीप सिन्हा मरकच्चो में रंगमंच के एक से एक कलाकार हुए, जिन्होंने झारखंड ही नहीं अन्य राज्यों में भी प्रदर्शन किया। 1960 में मास्टर छोटू सिंह के निर्देशन पर हंस वाहिनी क्लब ने बंगाल में नाटक प्रस्तुत किया और गोल्ड मेडल प्राप्त किया।
प्रयाग पांडेय
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