खूंटी की सबसे पुरानी पूजा में से एक है चौधरी मंडप की दुर्गा पूजा
शहर के चौधरी मोहल्ला स्थित चौधरी मंडप में होने वाली दुर्गा पूजा का इतिहास बहुत पुराना है।

चंद्रशेखर चौधरी, खूंटी
शहर के चौधरी मोहल्ला स्थित चौधरी मंडप में होने वाली दुर्गा पूजा का इतिहास शहर में सबसे पुराना है। यहां पर पूजा की शुरुआत कब से हुई, इसकी सही जानकारी किसी के पास नहीं है। झारखंड में सर्वप्रथम बंगाली समुदाय के लोगों ने रांची के दुर्गा बाड़ी में दुर्गा पूजा की शुरुआत की थी। कहा जाता है कि उसी कालखंड में रातू महाराजा द्वारा रातू में और जरियागढ़ स्टेट के राज परिवार द्वारा जरियागढ़ मे दुर्गा पूजा की शुरुआत की गई। जरियागढ़ स्टेट के तत्कालीन राजा और खूंटी पट्टी के 12 गांव के जमींदार बड़ाइक साहब की पहल पर तत्कालीन जमींदार सदाशिव चौधरी ने यहां पूजा की शुरुआत की थी। तब से यहां पर पूजा अटूट रूप से निरंतर होती आ रही है। चौधरी परिवार के सदस्य अधिवक्ता रासबिहारी चौधरी ने बताया कि जब उनके पूर्वजों ने पूजा की शुरुआत की थी तो प्रतिमा विसर्जन के लिए एक तालाब खोदा गया जिसे आज चौधरी तालाब के रूप में जाना जाता है। खूंटी पट्टी के 12 गांव के ग्रामीण यहां मां दुर्गा की पूजा अर्चना करने आते थे।
भैंसे व बकरे की दी जाती थी बलि
अधिवक्ता रासबिहारी चौधरी ने बताया कि पहले यहां महाअष्टमी के दिन भैंसें व बकरे की बलि चढ़ाई जाती थी। महाअष्टमी के दिन ग्रामीणों द्वारा मवेशियों की चढ़ाई जाने वाली बलि के कारण इतना अधिक रक्त बहता था कि वह पूजा स्थल से तालाब तक पहुंच जाता था। लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व पूजा के दौरान भैंसे और बकरे की बलि को बंद कर उसके स्थान पर कुष्मांड बलि की प्रथा शुरू की गई। परिवार के सदस्यों ने बताया कि लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व तत्कालीन जमींदार काशीनाथ चौधरी की मानसिक अवस्था कुछ गड़बड़ा गई। इसी दौरान काशी से स्वामी रामनाथ महाराज का आगमन खूंटी हुआ। स्वामी जी ने काशीनाथ चौधरी को सलाह दी कि हिसक पूजा को बंद कर उसके स्थान पर कुष्मांड बलि की प्रथा शुरू करें। स्वामी जी की सलाह को मानते हुए कुष्मांड बलि प्रथा की शुरुआत की गई। बताया गया कि कुष्मांड बलि शुरू होने के बाद आश्चर्यजनक ढंग से काशीनाथ चौधरी की मानसिक अवस्था में सुधार हो गया। आज भी खूंटी व आसपास गांव के ग्रामीण महाअष्टमी के दिन यहां पूजा अर्चना के लिए आते हैं।
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विसर्जन के लिए कंधे पर ले जाते हैं प्रतिमा
चौधरी मंडप की दुर्गा पूजा की एक और विशेषता यह है कि प्रतिमा को विसर्जन के लिए कांधे पर ढोकर नगर भ्रमण कराते हुए तालाब तक ले जाया जाता है। प्रतिमा को कंधे पर ढोने वालों में बगडू गांव के आदिवासी व खूंटी के हरिजन समुदाय के लोग शामिल रहते हैं। पूजा के प्रारंभ से जारी यह परंपरा आज तक जारी है। पूजा के लिए किसी प्रकार का चंदा नहीं किया जाता है पूजा में जो भी खर्च होता है, उसे चौधरी परिवार के सदस्य आपस में मिलकर वाहन करते हैं।
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