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160 वर्ष पुरानी है चौधरी मंडप की दुर्गापूजा

चौधरी मुहल्ला स्थित देवी मंडप में लगभग 160 वर्षों से दुर्गापूजा का आयोजन किया जा रहा है। झारखंड में सर्वप्रथम बंगाली समुदाय के द्वारा रांची के दुर्गाबाड़ी में दुर्गापूजा का आयोजन किया गया था।

By JagranEdited By: Published: Tue, 01 Oct 2019 06:23 PM (IST)Updated: Tue, 01 Oct 2019 06:23 PM (IST)
160 वर्ष पुरानी है चौधरी मंडप की दुर्गापूजा
160 वर्ष पुरानी है चौधरी मंडप की दुर्गापूजा

खूंटी : चौधरी मोहल्ला स्थित देवी मंडप में लगभग 160 वर्षों से दुर्गापूजा का आयोजन किया जा रहा है। झारखंड में सर्वप्रथम बंगाली समुदाय के द्वारा रांची के दुर्गाबाड़ी में दुर्गापूजा का आयोजन किया गया था। इसके कुछ वर्षों बाद खूंटी पट्टी के 12 गांवों के जमींदार बड़ाईक साहब की पहल पर तत्कालीन जमींदार सदाशिव चौधरी ने खूंटी में दुर्गापूजा की शुरुआत की। यह पूजा तबसे अब तक निरंतर होती आ रही है। पूजा शुरू होने के वर्ष ही महादेव मंडा परिसर में दशमी के दिन मेला का आयोजन शुरू हुआ। प्रतिमा को विसर्जन से पूर्व इस मेले में ले जाया जाता है। आज भी यह परंपरा जारी है।

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चौधरी परिवार के सदस्य अरुण चौधरी ने बताया कि जब यहां पूजा शुरू हुई, तो मां दुर्गा की प्रतिमा के विसर्जन के लिए एक तालाब खोदा गया, जिसे आज चौधरी तालाब के नाम से जाना जाता है। पहले यहां महाअष्टमी के दिन भैंसे व बकरे की बलि चढ़ाई जाती थी। खूंटी पट्टी के 12 गांवों के लोग यहां मां दुर्गा की पूजा-अर्चना करने आते थे। ग्रामीणों द्वारा चढ़ाई जा रही बलि के कारण इतना अधिक रक्त बहता था कि तालाब तक पहुंच जाता था। लगभग सौ साल पूर्व तत्कालीन जमींदार काशीनाथ चौधरी की मानसिक अवस्था थोड़ी गड़बड़ हो गई। इसी दौरान काशी से स्वामी रामनाथ का आगमन खूंटी हुआ। स्वामी ने काशीनाथ चौधरी को सलाह दी कि यहां जो हिसक पूजा होती है उसे बंद कर उसके स्थान पर कुष्मांड बलि की प्रथा शुरू करें। स्वामी की इस सलाह को मानते हुए यहां कुष्मांड बलि की प्रथा शुरू की गई। बताते हैं कि कुष्मांड बलि शुरू होने के बाद आश्चर्यजनक रूप से काशीनाथ चौधरी की मानसिक अवस्था में सुधार हो गया। तब से यहां कुष्मांड बलि दी जा रही है। आज भी खूंटी व आसपास के ग्रामीण महाअष्टमी के दिन यहां पूजा करने आते हैं। यहां की खास बात यह है कि विसर्जन के लिए मां की प्रतिमा को कंधे पर रखकर नगर भ्रमण कराते हुए तालाब तक ले जाया जाता है। प्रतिमा को कंधे पर ढोने वालों में बगड़ू गांव के आदिवासी व खूंटी के हरिजन समुदाय के लोग शामिल रहते हैं। पूजा के आयोजन के लिए किसी प्रकार का चंदा नहीं किया जाता है। जो भी खर्च होता है उसे चौधरी परिवार के सदस्य आपस में मिलकर करते हैं।


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