स्वामी विवेकानंद से नहीं मिलते जेएन टाटा, तो शायद जमशेदपुर में नहीं होता स्टील का कारखाना; ऐसे हुई मुलाकात
Swami Vivekanand Bith Anniversary. स्वामी विवेकानंद और जेएन टाटा की मुलाकात अगर नहीं हुई होती तो शायद भारत में आज की तारीख में टाटा स्टील जैसी बड़ी कंपनी भी नहीं होती। टाटा और स्वामीजी की मुलाकात की भी अनोखी कहानी है। आइए आप भी जानिए।

जमशेदपुर, वीरेंद्र ओझा। स्वामी विवेकानंद सिर्फ आध्यात्मिक ज्ञान नहीं रखते थे, उनकी जानकारी भारत के भौगोलिक परिदृश्य में भी उतनी ही गहरी थी। इस बात का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यदि जेएन टाटा उनसे नहीं मिलते तो टाटा स्टील का जो कारखाना जमशेदपुर में है, वह नहीं होता। वैसे जमशेदजी नसरवानजी टाटा की स्वामी विवेकानंद से मुलाकात संयोगवश ही हुई थी, लेकिन जाने-अनजाने हुई इस मुलाकात ने ही जमशेदपुर में भारत के पहले इस्पात संयंत्र टाटा स्टील की एक तरह से नींव रख दी थी। एक तरह से भारत के उद्योग जगत का शिलान्यास था।
1882 में जब जेएन टाटा की उम्र 43 वर्ष थी, उन्होंने जर्मन भूगर्भशास्त्री रिटरवॉन श्वार्ट्ज की रिपोर्ट पढ़ी थी, जिसमें लिखा था कि मध्यप्रदेश के चंदा जिले में लौह अयस्क का प्रचुर भंडार है। इसी रिपोर्ट को पढ़ने के बाद जेएन टाटा के मन में इस्पात संयंत्र की स्थापना करने का विचार आया, वरना इससे पहले टाटा कपड़ा उद्योग के कारोबार में व्यस्त थे। टाटा ने यह भी सुना था कि जिसका लोहे पर कब्जा होता है, उसका सोने पर कब्जा अपने अाप हो जाता है। अब जेएन टाटा ने भारत में ना केवल लोहा-इस्पात का कारखाना लगाने का दृढ़ निश्चय कर लिया था, बल्कि इस दिशा में उन्होंने प्रयास भी शुरू कर दिए थे।
1893 में विवेकानंद से हुई थी जेएनएन टाटा की मुलाकात
इसी बीच 1893 में स्वामी विवेकानंद शिकागो के धर्म सम्मेलन में भाषण देने जा रहे थे। उसी जहाज में जेएन टाटा अमेरिका में इस्पात संयंत्र के विशेषज्ञों से मिलने जा रहे थे। इस यात्रा के दौरान दोनों महान हस्तियों में लंबी बातचीत हुई। बातों-बातों में स्वामी जी को जब जेएन टाटा के उद्देश्य का पता चला तो उन्होंने ना केवल ओडिशा-बिहार की सीमा पर लौह-इस्पात उद्योग के लिए आवश्यक खनिज भंडार होने की जानकारी दी, बल्कि ओडिशा के मयूरभंज राजघराने में कार्यरत भूगर्भशास्त्री पीएन बोस से मिलने की सलाह दी। अमेरिका पहुंचने तक स्वामी विवेकानंद ने खनिज पदार्थों और इसके प्रभाव पर जितनी बातें बताईं, जेएन टाटा उनके ज्ञान से काफी प्रभावित हुए।
और लग गए टाटा के सपनों को पंख
इसके बाद तो जेएन टाटा के सपनों को मानों पंख लग गए। जेएन टाटा ने अमेरिका से ही अपने बड़े पुत्र दोराबजी टाटा को पत्र लिखकर स्वामी विवेकानंद से हुई सारी बातों का जिक्र किया। उस वक्त दोराबजी भूगर्भ वैज्ञानिकों के साथ मध्यप्रदेश के चंदा जिले में भ्रमण कर रहे थे। पत्र मिलते ही वे वहां से लौटे और मयूरभंज के राजा, फिर पीएन बोस से मिले। स्वामी विवेकानंद की बातें बताईं, तो मयूरभंज राजा ने ना केवल पीएन बोस को इस कार्य में लगा दिया, बल्कि लौह-इस्पात उद्योग के लिए यथासंभव सहयोग का भी आश्वासन दिया। टाटा स्टील के इस्पात संयंत्र में सबसे पहले जो लौह अयस्क उपयोग किया गया था, वह मयूरभंज से सटी गोरूमहिषाणी की पहाड़ियों में मिला था। यह मयूरभंज इस्टेट में पड़ता था।
दोमुहानी में हुआ स्थल चयन
दोराबजी टाटा ने भूगर्भ शास्त्री सीएम वेल्ड व श्रीनिवास के साथ इस्पात कारखाना के लिए जमशेदपुर पर मुहर तब लगाई, जब वे सोनारी के दोमुहानी पहुंच गए। यहां खरकई व स्वर्णरेखा नदी का संगम देखकर उन्होंने इस स्थान को कारखाना लगाने के लिए उपयुक्त बताया। चूंकि लोहा-इस्पात उद्योग के लिए प्रचुर मात्रा में पानी की आवश्यकता थी, वह यहां आकर पूरी हो गई। 1907 में जमशेदपुर का चयन हुआ, जबकि 27 अगस्त 1908 को टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी के नाम से योजना पत्र प्रकाशित किया गया। इसके साथ ही कंपनी की स्थापना के लिए निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ। दो दिसंबर 1911 को ढलवा लोहे (पिग आयरन) का पहला पिंड ढाला गया, जबकि 16 फरवरी 1912 को इस्पात की पहली सिल्ली बनी।
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