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    पूर्वी सिंहभूम में नाग देवता की पूजा का अनोखा चलन, जानें क्या है इसकी परंपरा के पीछे की आस्था

    By Ch Rao Edited By: Sanjeev Kumar
    Updated: Sat, 25 Oct 2025 05:38 PM (IST)

    जमशेदपुर के तेलुगु समाज ने कार्तिक मास की चतुर्थी को नागल चौती मनाई, जिसमें नाग देवता की पूजा की गई। लोग सांप के बिलों की पूजा करते हैं, जिससे कान दर्द से राहत मिलती है। आंध्र प्रदेश की यह पुरानी परंपरा पूर्वी सिंहभूम में भी मनाई जाती है। इस दिन, लोग सर्प देवता से परिवार की शांति और कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं और बिलों पर दूध और मिठाई चढ़ाते हैं।

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    जमशेदपुुर में बिल के पास नाग देवता की पूजा करते तेलुुगु समाज के लोग।

    जासं, जमशेदपुर।कार्तिक मास की चतुर्थी तिथि पर जमशेदपुर के तेलुगु समाज के लोगों ने परंपरा के अनुसार नागल चौती (नाग देवता) की पूजा-अर्चना शनिवार को की। मान्यता के अनुसार समाज के सदस्य साप के बिलों में यह पूजा करते हैं। समाज के सदस्य साफ-सुथरे वस्त्र धारण कर यह पूजा करते हैं। इसके लिए सांप के बिल की पहचान करते हैं। कान में दर्द न हो तथा लोग स्वस्थ्य रहे इस कारण यह पूजा की जाती है। आंध्र प्रदेश की यह प्राचीन परंपरा अब पूर्वी सिंहभूम की मिट्टी में भी रच-बस गई है। सर्पदेवता की कृपा और परिवार की सुख-शांति की कामना के लिए समाज के सदस्य हर वर्ष इस दिन सांप के बिलों की पूजा-अर्चना करते हैं। इस अवसर पर जुबिली पार्क, टेल्को थीम पार्क, कीताडीह, लोको कालोनी, बागबेड़ा, परसुडीह, कदमा और मानगो जैसे इलाकों में सांप के बिलों के पास पूजा की गई। सबसे पहले सर्प बिल के ऊपरी हिस्से को हल्का तोड़कर उसमें पानी डालकर साफ किया गया। इसके बाद बिल के पास दीया जलाया गया और लाल रंग की नई गमछी रखी गई। पूजा सामग्री के रूप में तिल और गुड़ से बने छोटे-छोटे लड्डू, केले, दूध और पानी सर्पदेवता को अर्पित किए गए। सभी विधि-विधान पूरे होने के बाद बिल की मिट्टी को कान पर लगाने की परंपरा निभाई गई, मान्यता है कि इससे कान का दर्द नहीं होता।

    पारंपरिक विधि से होती है सांप के बिलों की पहचान : तेलुगु समाज के लोग सांप के बिलों की पहचान एक या दो दिन पूर्व ही कर लेते हैं। इस बिल की पहचान पारंपरिक विधि के द्वारा की जाती है। पार्क, जंगल या खुले मैदानों में बने मिट्टी के टीलों के ऊपरी हिस्से को हल्का काटा जाता है। इसके बाद पत्थर एवं कम से कम दस फीट लंबा डंडा डाला जाता है। जब ये वस्तुएं भीतर समा जाती हैं और दिखाई नहीं देतीं, तो उस स्थान को सर्प का असली बिल माना जाता है।

    पटाखे और फुलझरियों से गूंज उठा वातावरण : नागल चौती के दिन पटाखे फोड़ने और फुलझरी जलाने की भी परंपरा है। इसका उद्देश्य सांपों को बिल से बाहर निकालना होता है ताकि पूजा सुरक्षित रूप से की जा सके। इस अवसर पर बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक सभी ने श्रद्धा और उत्साह से भाग लिया। समाज के प्रबुद्ध लोग एवं विभिन्न संस्थानों के पदाधिकारियों ने बताया कि आंध्र प्रदेश की इस परंपरा को जमशेदपुर के तेलुगु समाज के सदस्य आज भी जीवित रखे हुए हैं। भक्ति, परंपरा और आनंद का संगम बना नागल चौती का पर्व न केवल सर्पदेवता की आराधना का प्रतीक है, बल्कि यह समाज में सांपों और प्रकृति के प्रति सम्मान की भावना को भी जीवंत करता है।

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