आधुनिकता ने छीना गौरैया का घोंसला
आज गौरैया वहीं है, जहां जंगल-झाड़ी है। फूस व खपरैल मकान गौरैया के आश्रय होते थे।
वीरेंद्र ओझा, जमशेदपुर। लक्ष्मी का प्रतीक मानी जाने वाली नन्हीं सी चिडिय़ा अब लुप्तप्राय होती जा रही है। आज यदि किसी के आंगन में यह चिडिय़ा फुदकती हुई दिख जाती है तो आश्चर्य होता है, ऐसा क्यों है। शहर ही नहीं गांव में भी गौरैया की संख्या कम हो रही है।
जमशेदपुर को-ऑपरेटिव कालेज में जंतु विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष व पक्षी विज्ञानी डॉ. केके शर्मा बताते हैं कि इसकी वजह आधुनिकता है। आजकल गांवों में भी फूस व खपरैल मकान बहुत कम हो गए हैं, जबकि यही गौरैया के आश्रय होते थे। झाडिय़ां भी बहुत कम हो गई हैं, जहां ये अपना घोंसला या घर बनाते थे। बड़े पेड़ों पर गौरैया बहुत कम आश्रय लेती है, क्योंकि यहां बड़े पक्षियों का कब्जा होता है। हालांकि जब खपरैल की जगह पक्के मकान बनने लगे तो उसमें वेंटीलेटर होता था, जहां गौरैया घोसला बनाती थी।
अब तो ऐसे मकान या घर बन रहे हैं जिसमें वेंटीलेटर होता ही नहीं। आज गौरैया वहीं है, जहां जंगल-झाड़ी है। हालांकि उसे वहां भी रहने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। चूंकि गौरैया मानव जाति के आदिकाल से विद्यमान है, इसलिए यह वहीं रहना पसंद करती है जहां मनुष्य रहता है। गौरैया की दूसरी सबसे बड़ी दुश्मन बिजली है जिसके प्रकाश से ये रात को प्रजनन नहीं कर पातीं। घरों में बिजली के उपकरण भी इसके लिए प्रतिकूल परिस्थिति उत्पन्न करते हैं।
गौरैया साल में दो बार ही प्रजनन करती है गर्मी और जाड़े के मध्यकाल में, यदि इस समय इसे संरक्षण नहीं मिला तो इनकी वंशवृद्धि पर प्रतिकूल असर पड़ता है। यदि समाज सचमुच गौरैया के लिए चिंतित है तो रिहायशी इलाकों में फूस या खपरैल के छोटे-छोटे मकान या झोपड़ी बनाना चाहिए, जहां गौरैया शांतिपूर्वक रह सके।
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मोबाइल टावर कारण नहीं
कुछ लोग मोबाइल टावर को गौरैया समेत अन्य पक्षियों का दुश्मन बताते हैं, लेकिन डॉ. शर्मा ऐसा नहीं मानते। उनका कहना है कि यदि टावर से इन्हें खतरा होता तो सिर्फ शहर में इनकी आबादी कम होती, गांव में नहीं। दरअसल प्राकृतिक रहन-सहन में बदलाव गौरैया के कम होने का बड़ा कारण है।
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झारखंड में किसी को चिंता नहीं
बिहार सरकार ने दो वर्ष पहले गौरैया (हाउस स्पैरो) को राजकीय पक्षी घोषित किया था। हालांकि वहां भी इसके संरक्षण-संवर्धन के लिए अभी तक धरातल पर काम नहीं हो रहे हैं, लेकिन झारखंड में इसके लिए कोई चिंतित ही नहीं। डॉ. केके शर्मा कहते हैं कि कुछ राज्यों में वन व पर्यावरण विभाग पक्षियों पर शोध-सर्वे करता है, लेकिन यहां कुछ भी नहीं हो रहा है। राज्य के विश्वविद्यालयों में भी शोध के लिए न तो प्रयोगशाला है, न इसके लिए कोई दिशा-निर्देश या राशि का प्रावधान है। उनके जैसे कुछ लोग पक्षियों पर शोध या सर्वे कर रहे हैं, तो व्यक्तिगत स्तर पर। वन प्रदेश होने के नाते सरकार को इसकी चिंता करनी चाहिए।
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