जमशेदपुर,जासं। Jamsetji Tata राष्ट्र के औद्योगिक विकास को नई दिशा देने वाले कर्मवीर जमशेदजी टाटा ऐसे युग की उपज हैं, जब देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और व्यावसायिक दशा दिनोंदिन बदतर होती जा रही थी। अंग्रेजी साम्राज्य का 'फूट डालो, राज करो' नीति का एकाधिकार कायम था। देश अविद्या के अंधकार और दरिद्रता के दलदल में फंसा जा रहा था। असंतोष और अशांति का जहर विद्रोह का रूप धारण करने लगा था। गुलामी की जंजीर में जकड़ा राष्ट्र स्वतंत्रता के सपने देख रहा था।
यह भारत की विडंबना ही थी कि विश्व के ऐतिहासिक परिदृश्य में कभी 'सोने की चिडिय़ा' कहलाने वाला भारत दिनोंदिन लुटते रहने की वजह से खोखला बन चुका था। दुनिया के व्यापारिक और औद्योगिक होड़ में राष्ट्र काफी पिछड़ा हुआ था। ऐसी विषम परिस्थिति में 3 मार्च 1839 को बड़ौदा राज्य (गुजरात) के नवसारी नामक स्थान में एक संभ्रांत पारसी पुरोहित परिवार में जमशेदजी टाटा का जन्म हुआ। अपनी साधारण शिक्षा नवसारी से प्राप्त करने के बाद वे उच्चशिक्षा के लिए अपने पिता नौशेरवानजी टाटा द्वारा बम्बई लाए गए। बम्बई के एलफिंस्टन कालेज में उनका नामांकन कराया गया, जहां से उन्होंने 1858 में 'ग्रीन स्कालर' की डिग्री प्राप्त की। उस समय ग्रीन स्कालर की मान्यता स्नातक के समकक्ष थी। जमशेदजी का विवाह मेहरबाई नामक एक पारसी लड़की से हुआ। जमशेदजी के पिता अपने जमाने के एक सधे हुए व्यवसायी थे।
पढाई पूरी होने के बाद बंटाया पैतृक कारोबार में हाथ
रपढ़ाई पूरी होने के बाद जमशेदजी अपने पैतृक व्यवसाय में हाथ बंटाने लगे। 1859 में उनके बड़े पुत्र दोराबजी का जन्म हुआ। उस समय भारतीय संस्कृति पर पश्चिमी देशों का प्रभाव पडऩे लगा था। व्यापार में दिलचस्पी लेने के कारण जमशेदजी भी इससे अछूते नहीं रहे। विश्व के विभिन्न देशों का भ्रमण करने के कारण व्यवसाय जगत में अंतर्राष्ट्रीय अनुभव के साथ-साथ विभिन्न देशों की सभ्यता और संस्कृति का ज्ञान उन्हें मिल चुका था। अब जमशेदपुर ने कपड़ा व्यवसाय को अपना रास्ता चुनकर 29 वर्ष की आयु में 1868 में एक निजी व्यवसाय की शुरुआत की। 1871 में उनके दूसरे पुत्र रतन जी टाटा का जन्म हुआ। 1873 में जमशेदजी भारतीय सूती वस्त्र उद्योग को और बेहतर बनाने के उद्देश्य से इस उद्योग से जुड़े विभिन्न देशों का दौरा कर नयी तकनीक के बारे में जानकारी प्राप्त करने में जुट गए। उस समय बम्बई के आसपास के क्षेत्रों में सूती वस्त्र उद्योग की कुल 15 मिलें खुल चुकी थीं।
उदारवादी व्यक्तित्व
एक जनवरी 1877 को जमशेदजी ने 'एम्प्रेस मिल्स' के नाम से नागपुर में पहली सूती वस्त्र की मिल खोली और उसकी सफलता के बाद उन्होंने एक पुरानी मिल को खरीदकर उसे नयी तकनीक से सुसच्जित करके 'स्वदेशी मिल' का नाम दिया। इस मिल ने 1888 में कार्य करना प्रारंभ किया। यह मिल उस समय स्वदेशी आंदोलन का प्रतीक थी। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के समय भी जमशेदजी मौजूद थे। उन्होंने 1885 में ही कर्मचारियों को दुर्घटनाग्रस्त होने पर आर्थिक सहायता देने तथा 1886 में पेंशन फंड देने की घोषणा कर दी थी, जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार के द्वारा इन श्रमिक कल्याणकारी योजनाओं का अनुसरण किया गया। इन तथ्यों से जमशेदजी टाटा की दूरदर्शिता समय से कितनी आगे थी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
इस्पात की ओर
जमशेदजी टाटा ने 43 वर्ष की उम्र में 1882 में एक जर्मन भूगर्भ शास्त्री रिटरवान स्क्वाट्र्ज की लौह खनिज से संबंधित रिपोर्ट पढ़ी थी, जिसमें स्पष्ट रूप से बताया गया था कि उत्तम इस्पात तैयार करने के लिए सबसे अच्छा लौह खनिज भारत में मध्य प्रांत के चांदा जिले में पर्याप्त मात्रा में है। अब जमशेदजी की निगाहें हिंदुस्तान को उन्नति के शिखर पर पहुंचाने की दिशा में कुछ करने की ओर टिक गयीं। उनके मानस पटल पर देश को हर तरह से आत्मनिर्भर बनाने के लिए मुख्य रूप से तीन मार्ग सूझे- 1. देश में भारी उद्योग को खड़ा करने के लिए उत्तम दर्जे के इस्पात का निर्माण। 2. उद्योग-धंधों को सरल ढंग से चलाने के लिए नयी तकनीक द्वारा विकसित सस्ते जल विद्युत का निर्माण। 3. उद्योगों को ऊपर उठाने के लिए अनुसंधान के साथ जुड़ी तकनीकी शिक्षा।
सबसे पहले इस्पात निर्माण की ओर ध्यान
अपने मस्तिष्क में इन तीनों को लक्ष्य मानकर जमशेदजी ने अपना कार्य आरंभ कर दिया। उन्होंने सबसे पहले इस्पात निर्माण की ओर ध्यान देना आरंभ किया। उस समय विश्व बाजार में इस्पात निर्यातक देश के रूप में ग्रेट ब्रिटेन का एकाधिकार कायम था। बेल्जियम इस्पात निर्माण में एक अलग शक्ति बनकर उभरने की दिशा में संघर्षरत था। जब तक इस्पात के क्षेत्र में ग्रेट ब्रिटेन का एकाधिकार कायम रहा तब तक इस्पात संबंधी नीति में किसी भी तरह का परिवर्तन ब्रिटिश सरकार द्वारा नहीं किया गया। परंतु 1895-96 में ग्रेट ब्रिटेन के एकाधिकार को बेल्जियम द्वारा चुनौती मिलने लगी। बेल्जियम के बने इस्पात विश्वभर के बाजारों में छाने लगे। 1885-86 में मात्र आठ हजार टन इस्पात का निर्माण करने वाला बेल्जियम 1895-96 तक 280 हजार टन इस्पात का उत्पादन कर ग्रेट ब्रिटेन के उत्पादन और विक्रय शक्ति को पीछे छोडऩे लगा। तब जाकर 1899 में ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय खनिज नीति को पहले की अपेक्षा उदार बनाया गया। जब जमशेदजी टाटा भारत में इस्पात निर्माण से संबंधित प्रस्ताव लेकर सेक्रेटरी ऑफ इंडिया लार्ड हैमिल्टन से मिलने गये तो इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी गई। उसी समय भारत में लौह खनिज से संबंधित मेजर आरएच मोहन की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिसमें यह प्रदर्शित किया गया था कि लोहे और इस्पात के खनिज पदार्थों के लिए भारत में सालेम, चांदा तथा बंगाल के कुछ हिस्से एवं ईंधन के लिए झरिया का क्षेत्र सर्वाधिक उपयुक्त है।
लौहनगरी की रूपरेखा
अब जमशेदजी इस्पात से संबंधित स्थानों का भ्रमण कर विस्तृत जानकारियों उपलब्ध करने में व्यस्त हो गए। वे जूलियन केनेडी नामक विश्वप्रसिद्ध धातु विशेषज्ञ से मिले। जूलियन केनेडी ने भारत में इस्पात निर्माण संबंधी सारे तथ्यों को समझकर जमशेदजी को यह आश्वासन दिया कि 'अगर कच्चे माल तथा हालात का अच्छी तरह सर्वेक्षण हो जाता है, तो मैं प्लांट का निर्माण कर दूंगा।' जूलियन केनेडी के ही कहने पर जमशेदजी ने चाल्र्स पेज पेरिन नाम सर्वेक्षण विशेषज्ञ की भी सहायता ली। सन 1902 में जमशेदजी टाटा ने विदेश से अपने बड़े पुत्र दोराबजी टाटा के नाम पत्र लिखकर अपने दिल में बसे इस्पात नगर के सपने को प्रदर्शित किया 'इस बात का ध्यान रखना कि सड़कें चौड़ी हों। उसके किनारे तेजी से बढऩे वाले छायादार पेड़ लगाए जाएं। इस बात की भी सावधानी बरतना कि बाग-बगीचों के लिए काफी जगह छोड़ी जाय। फुटबाल, हाकी के मैदानों के लिए काफी जगह रहे। हिंदुओं के मंदिरों, मुसलमानों के मस्जिदों और इसाईयों के गिरिजाघरों के लिए विशेष रूप से जगह छोडऩा न भूलना।'
65 वर्ष की आयु में देहांत
इस कार्य में विख्यात भूगर्भशास्त्री सीएम वल्र्ड, जमशेदजी टाटा के बड़े पुत्र दोराबजी टाटा तथा चचेरे भाई शापूरजी सकलतवाला जैसे निपुण व्यक्तियों को लगाया गया। उन्हें झरनों, पहाड़ों और घने जंगलों में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। परंतु मंजिल तक पहुंचने की दृढ़ प्रतिज्ञा का चलने वाले राही कठिनाइयों से घबराकर कभी पीछे नहीं हटे, बल्कि उनका डटकर मुकाबला करते हुए आगे बढ़ते गए। दूसरी ओर जमशेदजी का स्वास्थ्य ढलती उम्र के कारण दिनोंदिन गिरने लगा और 19 मई 1904 को जर्मनी के वादनोहाइम नाम स्थान में भारतीय उद्योग को धरा से गगन की ओर खींचने वाले इस कर्मवीर का 65 वर्ष की आयु में देहांत हो गया।
साकची का चयन
एक खोजी दल के रूप में जमशेदजी के सपनों को संजोए हुए उनके प्रतिनिधि जब दल्ली-राजहरा की पहाडिय़ों पर चढ़ रहे थे, तभी उनके पैरों से लौह खनिज के टकराने की खन-खन आवाज निकलने लगी। जब यहां के लौह खनिज का परीक्षण किया गया तो सबसे उत्तम दर्जे का इस्पात प्रचुर मात्रा में विद्यमान था। परंतु यहां आसपास चूना पत्थर, कोकिंग कोल तथा उचित जलस्रोत नहीं मिल पाने के कारण इस क्षेत्र को भी उचित नहीं समझा गया। कुछ दिनों के बाद मयूरभंज महाराज के यहां कार्यरत भूगर्भशास्त्री पीएन बोस के द्वारा यह स्पष्ट किया गया कि गोरुमहिसानी के आसपास लौह खनिज भरपूर मात्रा में विद्यमान है। आसपास के क्षेत्रों में कोकिंग कोल तथा चूना पत्थर भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे। यहां के लौह खनिज में लोहे की मात्रा 60 प्रतिशत विद्यमान थी, परंतु समुचित जलस्रोत का यहां भी अभाव था। जलस्रोत की खोज में सर्वेक्षणकर्ता सीएम वेल्ड और श्रीनिवास जंगलों और पहाडिय़ों में भटकते हुए एक रेतीले स्थान पर पहुंच गए जहां उनके घोड़ों को चलने में परेशानी होने लगी। मुसीबतों का सामना करते हुए दोनों जब कुछ और आगे बढ़े तो बड़ी-बड़ी चट्टानों को पार करने के बाद एक नदी मिली।
खरकाई और स्वर्णरेखा का संगम
वेल्ड और श्रीनिवास के चेहरे खिल उठे और दोनों उत्सुकतावश आगे बढऩे लगे। थोड़ी ही दूरी पर एक रमणीक एवं पवित्र स्थान दिखा, जहां पर दो नदियों खरकाई और स्वर्णरेख का संगम हुआ था। पास में ही साकची नामक गांव था। यह जगह जमशेदजी टाटा के सपनों को साकार करने के लिए पूर्ण रूप से उपयुक्त थी। अपने प्रारंभिक प्रयोगों की अनिश्चितता के बाद वेल्ड ने संगम के किनारे बसे उसी साकची नामक गांव का चयन किया, जो कलकत्ता से बम्बई जाने वाली रेलवे लाइन पर स्थित कालीमाटी रेलवे स्टेशन से लगभग 4 किलोमीटर दूरी पर था। कारखाना लगाने के लिए पूंजी की तलाश में लंदन तक कोशिश की गयी, परंतु वहां के लोगों ने इस योजना में कोई रुचि नहीं दिखाई। अंतिम प्रयास भारतीय नागरिकों के बीच किया गया। 27 अगस्त 1907 को कंपनी का योजना पत्र प्रकाशित किया गया, जिसके लगभग तीन सप्ताह बाद निर्धारित लक्ष्य की पूंजी लगभग दो करोड़ रुपये आठ हजार भारतीयों से प्राप्त हो गयी।
1908 में टाटा स्टील का शिलान्यास
7 फरवरी 1908 को साकची में टाटा स्टील का शिलान्यास किया गया। इस तरह से कल तक नदियों, पहाड़ों और जंगलों के बीच अठखेलियां करने वाला ऊंघता हुआ गांव साकची आज राष्ट्र के प्रथम समन्वित इस्पात कारखाने के केंद्रबिंदु में परिवर्तित हो गया। 16 फरवरी 1912 को इस्पात की पहली सिल्ली बनकर तैयार हुई। आरंभ से ही यह आम धारणा रही है कि व्यापार में सत्यमार्ग अपनाने से उन्नति नहीं होती। धंधे में सत्य को परिस्थितिवश दरकिनार कर ही देना पड़ता है। ऐसे विचार वाले लोगों को कर्मवीर जमशेदजी टाटा के जीवन चरित्र से प्रेरणा लेनी चाहिए, क्योंकि उनके जीवन में सफलता का मुख्य सूत्र सत्यमार्ग ही था। जिसके कारण आज वे हमारे बीच एक परिपक्व तथा समृद्ध सृष्टिकर्ता के रूप में याद किए जाते हैं।
दूरदर्शी सोच
जमशेदजी टाटा ने 1892 में जेएन टाटा एंडोलेसेंस छात्रवृत्ति की शुरुआत की थी। उनके द्वारा शुरू की गई सार्वजनिक तौर पर यह प्रथम कल्याणकारी योजना थी। उनका मानना था कि देश की प्रगति के लिए सर्वोत्तम और सर्वाधिक प्रतिभाओं को प्रकाश में लाना चाहिए, ताकि देश की बड़ी सेवा करने के लायक उन्हें बनाया जा सके। 1924 में किए गए आकलन के अनुसार, हर पांचवें आईसीएस अधिकारी को जेएन टाटा छात्रवृत्ति प्राप्त थी और अब तक इस छात्रवृत्ति का परिणाम बनकर डा. राजा रामन्ना, केआर नारायणन, एस देसाई, एमएन दस्तूर, डा. एफए मेहता तथा डा. जेजे ईरानी जैसी विलक्षण प्रतिभाएं प्रारंभ से ही राष्ट्र को गौरवान्वित करती रही हैं।
1903 में स्थापित किया होटल ताज
जमशेदजी टाटा ने आधुनिक गृहसच्जा की अनुपम रीति से सुसच्जित होटल ताज को 1903 में स्थापित किया जो आज पूरी दुनिया में अपनी छवि के लिए विख्यात है। अपने जीवन के अंतिम दौर में जमशेदजी टाटा ने अपने पुत्र दोराबजी टाटा को लिखा था 'अगर तुम उसे आगे नहीं बढ़ा सकते तो कम से कम हमने अब तक जो कुछ कर लिया है, उसे खो मत देना।' परिणामस्वरूप उनके कुशल एवं निपुण प्रतिनिधियों ने 'टाटा' के नाम को उद्योग जगत की दुनिया में सर्वोपरि स्थान में लाकर खड़ा किया, उनके स्वर्ग सिधारने के तीन वर्ष बाद उनके सपनों के इस्पात नगर की स्थापना की गई। जमशेदजी के जल विद्युत निर्माण के अधूरे सपने को 'हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर सप्लाई कंपनी' के नाम से 1910 में स्थापित कर पूरा किया गया। राष्ट्र के भविष्य को निखारने के लिए अनुसंधान के साथ जुड़ी तकनीकी शिक्षा के लिए 'इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस' का निर्माण बंगलोर में 1916 में किया गया जो भारतीय विज्ञान की सफलता की ओर अग्रसारित करने के लिए पग-पग पर सहयोगी है।
राष्ट्रभक्ति की छाप
जमशेदजी टाटा के हृदय में उपजी भावनाओं की ओर ध्यान देने पर उनकी दूरदर्शिता, उदारता तथा कार्यनिपुणता में राष्ट्रभक्ति की स्पष्ट छाप दिखायी पड़ती है। ट्रस्टीशिप की अवधारणा को जन्म देकर टाटा घराने ने देश को विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढऩे के लिए विकास मार्ग को और सरल करने में जो सहयोग प्रदान किया है, उसके लिए राष्ट्र उन्हें कभी भुला नहीं सकेगा। टाटा मेमोरियल सेंटर, टाटा इंस्टीटयूट ऑफ सोशल साइंसेज, टाटा इंस्टीटयूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, सोशल वेलफेयर बोर्ड, टाटा ब्लड बैंक तथा सेंटर फॉर दि परफार्मिंग आर्ट्स जैसी सार्वजनिक कल्याणकारी संस्थाओं का निर्माण टाटा समूह द्वारा संचालित विभिन्न ट्रस्टों के माध्यम से हुआ, जो आज अपने-अपने क्षेत्र में राष्ट्र के गौरव हैं। देश की व्यावसायिक और औद्योगिक स्थिति को सुदृढ़ कर भारत को दुनिया के समुन्नत राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा करने वाले जमशेदजी टाटा अपने अटल इरादों को संबल मानकर कुशल कर्मवीरता का परिचय देते हुए नित नई योजनाओं की खोज में लगे रहे और अपने आत्म-परख से कुशल सहयोगियों का चुनाव कर मरणोपरांत भी अपने सपनों को साकार करने में पूरी तरह सफल रहे।