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इन आदिवासी नायकों की दास्तान आपको कर देगी चकित, आ‍इए सुनिए इनकी कहानी

बात ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की हो या हरी-भरी वादियों और पहाड़ों के बीच साहित्य रचने और लिपि गढऩे की यहां आदिवासी समुदाय में बहुतेरे नाम मिल जाएंगे। जानिए इनकी कहानी।

By Rakesh RanjanEdited By: Published: Sat, 31 Aug 2019 01:36 PM (IST)Updated: Sun, 01 Sep 2019 09:27 AM (IST)
इन आदिवासी नायकों की दास्तान आपको कर देगी चकित, आ‍इए सुनिए इनकी कहानी
इन आदिवासी नायकों की दास्तान आपको कर देगी चकित, आ‍इए सुनिए इनकी कहानी

जमशेदपुर, वीरेंद्र ओझा। झारखंड के कोल्हान की धरती ने हर क्षेत्र में एक से बढ़कर एक नायक दिए हैं। बात ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की हो या हरी-भरी वादियों और पहाड़ों के बीच साहित्य रचने और लिपि गढऩे की, यहां आदिवासी समुदाय में बहुतेरे नाम मिल जाएंगे। कोल्हान की माटी अपने इन आदिवासी नायकों पर हमेशा गर्व महसूस करती है। हां, युवा पीढ़ी जरूर इन नायकों की कहानी से अंजान है। आइए, सुनाते हैं इन नायकों की कहानी।

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पं.रघुनाथ मुर्मू ने संताली को ओलचिकि में किया लिपिबद्ध

आदिवासियों की संताली भाषा ना केवल झारखंड बल्कि ओडिशा, प. बंगाल, बिहार व असम में बोली जाती है। इस भाषा की शुरुआत 15वीं शताब्दी में हुई थी, लेकिन इसे समृद्ध बनाने का श्रेय पं. रघुनाथ मुर्मू को जाता है। उन्होंने इस भाषा की लिपि का अविष्कार किया। उनके मन में इसकी जिज्ञासा तब हुई, जब मयूरभंज(ओडिशा) के डांडबुस नामक पैतृक गांव के पास बोडोतोलिया हाईस्कूल में पढ़ाने लगे। पांच मई 1905 को जन्मे पं. रघुनाथ मुर्मू ने 20 वर्ष की आयु में ओलचिकि लिपि का अविष्कार कर दिया। ककहरा की खोज के बाद इसे व्याकरण की दृष्टि से विकसित करने में जुट गए।

जब अंग्रेज पर गए थे पीछे

 पंडित रघुनाथ मुर्मू। 

पंडित रघुनाथ मुर्मू के पोता पं. चुनमन रघुन मुर्मू बताते हैं कि 1945 तक उनके दादा आदिवासियों के धार्मिक नेता के रूप में स्थापित हो गए थे। 1949 में मयूरभंज में आदिवासियों का बड़ा आंदोलन हो गया। क्षेत्र में धारा-144 लागू कर दी गई। प्रशासन की सोच थी कि रघुनाथ मुर्मू को गिरफ्तार कर लेंगे, तो आंदोलन शांत हो जाएगा। मयूरभंज के कलेक्टर गिरफ्तार करने के लिए डांडबुस आने वाले थे, इसकी भनक दादाजी को लग गई। वह सरायकेला (झारखंड) चले आए। वह करीब 10 वर्ष तक सरायकेला और करनडीह (जमशेदपुर) में रहे। उसी बीच उन्होंने करनडीह में घर बना लिया। वहीं चंदन प्रेस के नाम से प्रिंटिंग प्रेस चलाया।

लाको बोदरा ने हो भाषा के लिए बनाई वारांगक्षिति लिपि

कोल्हान, खासकर पश्चिम सिंहभूम में हो आदिवासियों की भाषा 'हो' को पूर्ण भाषा देने का श्रेय लाको बोदरा को जाता है। ओत गुरु कोल लाको बोदरा का जन्म 19 सितंबर 1919 को पश्चिम सिंहभूम जिले में चक्रधरपुर के पास खूंटपानी प्रखंड स्थित पासेया गांव में हुआ। पिता लेबेया बोदरा और माता जानो कुई संपन्न किसान थे। लाको बोदरा की प्रारंभिक शिक्षा बचोमहातु प्राथमिक विद्यालय में हुई। इसके बाद पुरुएया प्राथमिक विद्यालय, फिर दक्षिण पूर्व रेलवे उच्च विद्यालय से पढ़ाई की। दसवीं बोर्ड परीक्षा चाईबासा जिला स्कूल से दी। जयपाल सिंह मुंडा की सहायता से पंजाब के जालंधर से उन्होंने होम्योपैथी की डिग्री हासिल की। नोवामुंडी के पास डंगुवापोसी स्थित रेलवे कार्यालय में लिपिक रहे।

लिपि को मान्यता दिलाने के लिए किया संघर्ष

 लाको बोदरा ।

नौकरी के दौरान ही उन्होंने वरांगक्षिति लिपि का अविष्कार किया। वैसे लाको बोदरा के अनुसार तूरी नामक एक तांत्रिक ने हो लिपि का अविष्कार उनसे पहले किया था। संभवत: ब्राह्मी लिपि में। कालांतर में इसका लोप हो गया। लाको बोदरा अपनी लिपि को मान्यता दिलाने के लिए 1957 में दिल्ली गए। वहां तत्कालीन उपशिक्षा मंत्री मनमोहन दास से मिले थे। उन्होंने 1954 में झींकपानी सीमेंट कारखाना कॉलोनी में आदि समाज की स्थापना की थी। यहां विभिन्न गांवों के बीस लोग लिपि सीखने आते थे। 1956 में उन्होंने चाईबासा सीमेंट कारखाना के पास जोड़ापोखर गांव में आवासीय स्कूल भी खोला, जहां 500 छात्र ङ्क्षहदी के साथ हो भाषा व वरांगक्षिति लिपि पढ़ते थे। उनका निधन 29 जून 1986 जमशेदपुर के एक अस्पताल में पेट की बीमारी के कारण हो गया।

संताली में भारतीय संविधान का दिगंबर ने किया अनुवाद

जमशेदपुर में जन्मे व पले-बढ़े पद्मश्री दिगंबर हांसदा की पहचान ना केवल शिक्षाविद्, साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता (ट्राइबल एक्टीविस्ट) के रूप में रही है, बल्कि इन्होंने इन क्षेत्रों में आदर्श भी स्थापित किया। 16 अक्टूबर 1939 को जन्मे दिगंबर हांसदा ने आदिवासियों के सामाजिक व आर्थिक उत्थान के लिए पश्चिम बंगाल व ओडिशा में भी काम किया।

मिला पद्मश्री सम्मान

 दिगंबर हांसदा। 

इन्हें 2018 में पद्मश्री की उपाधि साहित्य व शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्यों के लिए दिया गया। जमशेदपुर के पास डोभापानी में जन्मे दिगंबर हांसदा के पिता किसान थे, लिहाजा वे भी खेती में हाथ बंटाते थे। प्रारंभिक शिक्षा राजदोहा मिडिल स्कूल और मानपुर हाईस्कूल में हुई, जबकि राजनीति विज्ञान से स्नातक व परास्नातक की डिग्री रांची विश्वविद्यालय से हासिल की। करनडीह स्थित लाल बहादुर शास्त्री कालेज के प्रोफेसर व प्रभारी प्राचार्य के पद से सेवानिवृत्त हुए। इसके बाद कोल्हान विश्वविद्यालय के सिंडिकेट सदस्य बनाए गए। संताली भाषा व साहित्य में उल्लेखनीय कार्य कर चुके हैं। इन्होंने संताली में भारत के संविधान का अनुवाद भी किया है। केंद्र सरकार के आदिवासी अनुसंधान संस्थान के सदस्य रह चुके हैं। इन्होंने कई पाठ्य पुस्तकों का देवनागरी से संताली भाषा में अनुवाद किया है।

चुहाड़ विद्रोह के नायक शहीद रघुनाथ महतो

ब्रिटिश सरकार के खिलाफ झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों ने वर्ष 1769 से 1805 के बीच बड़ा आंदोलन किया था। इसके नायक थे रघुनाथ महतो। उन्होंने सरकार के खिलाफ जनमानस को संगठित कर सशस्त्र विद्रोह किया था। तत्कालीन जंगल महाल अंर्तगत मानभूम के एक छोटे से गांव घुटियाडीह (अभी नीमडीह प्रखंड) में 21 मार्च 1738 को इनका जन्म हुआ था। गुरिल्ला युद्ध नीति से अंग्रेजों के दांत खट्टे करनेवाले इस विद्रोह को अंग्रेजों ने ही उत्पाती या लुटेरा की संज्ञा देते हुए 'चुहाड़ विद्रोह' या 'चुआड़ विद्रोह' का नाम दिया था। अंगेज रहने लगे थे भयभीत

 

रघुनाथ महतो के संगठन से अंग्रेज मेदनीपुर से हजारीबाग, रामगढ़ व बांकुड़ा से चाईबासा तक भयभीत रहते थे। विद्रोह की मुख्य वजह अंग्रेज शासकों द्वारा जल, जंगल, जमीन व अन्य बहुमूल्य खनिज संपदा को हड़पने की नीयत रही। रघुनाथ महतो की सेना में टांगी, फरसा, तीर-धनुष, तलवार, भाला आदि से लैस करीब पांच हजार लोग थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने रघुनाथ महतो को जिंदा या मुर्दा पकडऩे के लिए इनाम भी रखा था। पांच अप्रैल 1778 की रात रघुनाथ महतो और उनके सहयोगियों के लिए आखिरी रात साबित हुई। सिल्ली प्रखंड अंर्तगत लोटा पहाड़ के किनारे शस्त्र लूटने की योजना बना रहे रघुनाथ महतो की सेना को घेर कर अंग्रेजी फौज ने मौत की नींद सुला दिया।

भूमिज विद्रोह के नायक वीर गंगा नारायण सिंह

अंग्रेजों के खिलाफ छोटानागपुर से कोल्हान तक 1767 से 1833 तक भूमिज मुंडाओं ने आंदोलन किया, जिसे भूमिज विद्रोह कहा गया। अंग्रेजों ने इसे 'गंगा नारायण का हंगामा' कहा, जबकि इतिहासकारों ने इसे चुआड़ विद्रोह लिखा। इस आंदोलन के नायक वर्तमान पश्चिम बंगाल स्थित बराभूम के राजा विवेक नारायण सिंह के पुत्र गंगा नारायण सिंह थे। यह आंदोलन 1765 में तब शुरू हुआ, जब दिल्ली के बादशाह शाह आलम ने ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार व उड़ीसा की दीवानी सौंप दी। लगान वसूलने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने नए-नए तरीके अपनाने शुरू किए। नमक का कर, दारोगा प्रथा, जमीन विक्रय कानून, महाजन तथा सूदखोरों को तो यहां लाया ही गया, जंगल कानून, जमीन की नीलामी आदि के लिए शुल्क लिया जाने लगा।

 अंगेजी शोषण के खिलाफ लड़ने वाले पहले वीर

अंग्रेजी शोषण के खिलाफ लडऩे वाले गंगा नारायण सिंह प्रथम वीर थे। उनके गुरिल्ला वाहिनी में हर जाति के लोग थे। यह बंगाल के अलावा धालभूम और सिंहभूम में भी सक्रिय थी। गंगा नारायण सिंह ने वराहभूम या बराभूम के दिवान व अंग्रेज दलाल माधव सिंह को वनडीह में दो अप्रैल 1832 को मार दिया था। उसके बाद सरदार वाहिनी के साथ बड़ाबाजार के मुफ्फसिल की कचहरी, नमक दारोगा का कार्यालय व थाना को आगे के हवाले कर दिया। बांकुड़ा काकलक्टर गंगा नारायण सिंह को गिरफ्तार करने पहुंचा, पर गुरिल्ला वाहिनी ने घेरकर सभी सिपाहियों को मार डाला। कलक्टर रसेल किसी तरह जान बचाकर बांकुड़ा भाग निकला। इस घटना से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आंदोलन सिंहभूम से होते हुए ओडिशा के क्योंझर व मयूरभंज तक पहुंच गया।

जंगल महल हो गया था अंग्रेजों के काबू से बाहर

पूरा जंगल महाल अंग्रेजों के काबू से बाहर हो गया। अंत में अंग्रेजों ने जंगल महाल में लागू किए गए सभी कानून वापस लेने की घोषणा कर दी। उस समय खरसावां के ठाकुर चेतन सिंह अंग्रेजों के साथ मिलकर शासन चला रहे थे। गंगा नारायण सिंह पोड़ाहाट के राजा और चाईबासा के हो जनजातियों को ठाकुर चेतन सिंह और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई के लिए संगठित करने गए थे। रणनीति बनाकर छह फरवरी 1833 को खरसावां के ठाकुर चेतन सिंह ने हिंदशहर के थाने पर हमला किया, पर अगले दिन अंग्रेज सैनिकों ने गंगा नारायण सिंह को घेरकर मार डाला।

  •  अंग्रेजों व मुगलों के खिलाफ भारत में सबसे पहले यहीं के आदिवासियों ने विद्रोह शुरू की थी।
  •  1857 के सिपाही विद्रोह से पहले भी यहां यहां के आदिवासियों ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे।

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