Guru Arjan Dev Shaheedi Diwas ः अर्जुन देव ने क्यों कहा था कि जितने जिस्म पर पड़ेंगे छाले, उतने सिख होंगे सिदक वाले, उनके शहीदी के बारे में जानें
गुरु अर्जुन देव की शहीदी दिवस पर विशेष सिखों के पांचवे गुरु अर्जुन देव जी महाराज को मुगल बादशाह जहांगीर ने 1606 को लाहौर में शहीद कर दिया गया था। इस साल शुक्रवार(3 जून) को उनकी शहीदी दिवस जमशेदपुर के सिख समाज के लोग मनाएंगे।
जासं, जमशेदपुर :Guru Arjan Dev Shaheedi Diwas Jamshedpur सिखों के पांचवे गुरु अर्जुन देव जी महाराज को मुगल बादशाह जहांगीर ने 1606 को लाहौर में शहीद कर दिया गया था। शहीदी के समय मिंया मीर ने गुरु अर्जुन देव जी से पूछा कि आपके शरीर पर छाले पड़ रहे हैं। इसके बावजूद आप शांत हैं। तब गुरु अर्जुन देव ने कहा था कि जितने जिस्म पर पड़ेंगे छाले, उतने सिख होंगे सिदक वाले। यानि मेरे शरीर में जितने छाले पड़ेंगे, उतरे हजारो-करोड़ों सदके वाले सिखों का जन्म होगा।
सिख प्रचारक हरविंदर सिंह जमशेदपुरी ने गुरु के शहीदी दिवस को मीठे पानी वाला गुरुपर्व नहीं बल्कि शहादत के रूप में स्मरण करने का संकल्प लेने वाला पर्व बताया। इनका कहना है कि हर सिख को उनकी शहीदी से प्रेरणा लेनी चाहिए। उनकी शहादत को अपने जहन में रखना चाहिए। उनका इतिहास पढ़ना चाहिए ताकि जीवन में आने वाली किसी भी विषम परिस्थिति में अपने मार्ग से डगमगाएंगे नहीं। गुरु जी को गर्म तवे पर बैठाकर उन पर गर्म रेत डाला जाता रहा। इसके बावजूद वे शांत रहे। उनका शरीर तप रहा था लेकिन उनका मन अकाल पुरख से जुड़ा हुआ था। हमें भी उनकी तरह ही अडोल रहना चाहिए। उनकी शहादत को लासानी (अनोखी) शहादत कहा जाता है। सिख इतिहास में गुरु अर्जुन देव पहले सिख गुरु हुए। उनकी याद में ही छबील लगाई जाती है। जो जून की गर्मी में मानवता के नाते लोगों को शीतलता प्रदान करने की एक पहल है। हरविंदर सिंह जमशेदपुरी ने सभी सिखों से अपील की है कि वे गुरु साहिब के इतिहास को जरूर पढ़े। यही असल में शहीदी गुरु पर्व मानाना होगा।
नाना से मिली थी गुरमत की शिक्षा
गुरु अर्जुन देव जी का जन्म दो मई 1563 में पंजाब के गोइदवाल में गुरु राम दास व माता भानी जी के घर पर हुआ था। उन्हें गुरमत की शिक्षा वर्ष 1581 में अपने नाना गुरु अमर दास जी से मिली। जो सिखों के तीसरे गुरु थे। इसके बाद गुरु जी ने अपने जीवन काल में बहुत सारे काम किए। इसमें गरीबाें की सेवा के लिए गुरुद्वारों में दवाखाने खुलवाने, गुरु घर की गोलक (दान पेटी) का उपयोग परोपकार में खर्च करने में लगाए। वर्ष 1597 में जब लाहौर में अकाल पड़ा, कई लोग बीमार हुए तो गुरु जी ने अपने हाथों से लोगों की सेवा की। साथ ही लाहौर से वापस आते समय उन्होंने सिखी धर्म का प्रचार-प्रसार किया। उनकी पहल पर ही वर्ष 1601 में लोगों को एक अकाल पुरख से जोड़ा गया। आद ग्रंथ साहिब की लिखाई भी इन्होंने ही शुरू कराई थी जिसकी जिम्मेदारी भाई गुरुदास जी को सौपी गई थी।