झारखंड: जमीन एक, कानून तीन
जमशेदपुर, कार्यालय संवाददाता : झारखंड में जमीन की खरीद-फरोख्त को लेकर एक-दो नहीं बल्कि तीन-तीन कानून हैं। वहीं देश के अधिकांश प्रदेशों में जमीन को लेकर एक कानून है। झारखंड में सीएनटी (छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम), एसपीटी (संथाल परगना अधिनियम) व शिड्यूल एरिया रेगुलेशन एक्ट प्रभावी है। सीएनटी व एसपीटी एक्ट पर हाईकोर्ट की टिप्पणी के बाद पूरे प्रदेश में भूचाल आया हुआ है। सीएनटी व एसपीटी एक्ट में संशोधन के साथ राज्य में जमीन खरीद-फरोख्त के लिए एक ही कानून की बात उठने लगी है। वैसे राज्य में कानून तो है लेकिन उसका उल्लघंन करने के मामले भी कम नहीं है। सीएनटी एक्ट में स्पष्ट है कि आदिवासियों, अनुसूचित जातियों व ओबीसी यानि अति पिछड़ों की जमीन सामान्य जाति के लोग खरीद नहीं सकते है लेकिन राज्य में बड़े पैमाने पर सामान्य जाति के लोगों ने आदिवासियों व ओबीसी की जमीन को खरीदा है। हाईकोर्ट के आदेश के बाद राज्य सरकार ने नियम सख्त करते हुए रजिस्ट्री पर रोक लगा दी है। अब सवाल उठने लगे हैं कि पूर्व में जो जमीन खरीद-फरोख्त का काम हो चुका है, उसका क्या होगा? ऐसे में एक बार फिर से राज्य की जनता दो भागों में बंटी दिख रही है।
1908 में बना सीएनटी कानून
अंग्रेजों ने 1908 में सीएनटी छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम बनाया था। आदिवासियों की जमीन को बाहरियों से बचाने के लिए यह कानून अस्तित्व में आया था। तब आदिवासियों की सामाजिक हालत ठीक नहीं थी। उनमें शिक्षा व जागरुकता की कमी थी। इस कारण भोले-भाले आदिवासियों को बहला-फुसला कर बाहर से आए लोग जमीन हड़प लेते थे। इसलिए यह कानून बनाया गया था। इस कानून के मुताबिक आदिवासियों की जमीन कोई आदिवासी ही खरीद सकता है और वह भी उसी थाना क्षेत्र का निवासी हो। एससी व ओबीसी के साथ भी यह ही नियम लागू होता है।
कोट
सीएनटी, एसपीटी व शिड्यूल एरिया रेगुलेशन एक्ट को मिलाकर पूरे प्रदेश का एक एक्ट बनना चाहिए। एक्ट में संशोधन करना जरुरी है। राज्य हित में और आदिवासियों के उत्थान को ध्यान में रखते हुए एक अधिनियम तैयार हो।
उदित सरकार, वरीय अधिवक्ता
1908 की स्थिति को देखते हुए सीएनटी एक्ट बना था। आज के परिप्रेक्ष्य में इसमें बदलाव जरुरी है। सभी दलों, सामाजिक संगठनों व बुद्धिजीवियों को लेकर पूरे प्रदेश के लिए एक एक्ट बनाना चाहिए। आदिवासियों के पास जमीन रहते हुए भी उनका व उनके परिवार का विकास नहीं हो पाया। मुसीबत के समय वे अपनी जमीन नहीं बेच पाते हैं।
पीएन गोप, वरीय अधिवक्ता
अभी तक जो उल्लघंन हुआ है, उसपर पहले विचार करना चाहिए। फिर समरसता को ध्यान में रखते हुए एक्ट में बदलाव हो। भविष्य की चिंता जरुरी है लेकिन आदिवासी-मूलवासियों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए। बीस प्रतिशत के लिए अस्सी प्रतिशत का नुकसान नहीं हो।
सालखन मुर्मू, पूर्व सांसद
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