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आस्था का प्रतीक बना है हापामुनी का महामाया मंदिर

गौतम घाघरा (गुमला) जनजातीय बहुल क्षेत्र में शक्ति की उपासना 900 वर्षों से की जा रही है। घ

By JagranEdited By: Published: Wed, 21 Oct 2020 09:52 PM (IST)Updated: Wed, 21 Oct 2020 09:52 PM (IST)
आस्था का प्रतीक बना है हापामुनी का महामाया मंदिर

गौतम, घाघरा (गुमला) : जनजातीय बहुल क्षेत्र में शक्ति की उपासना 900 वर्षों से की जा रही है। घाघरा प्रखंड मुख्यालय से 12 किलोमीटर की दूरी हापामुनी गांव का महामाया मंदिर आस्था का केन्द्र बना हुआ है। ऐसा माना जाता है कि महामाया मंदिर में जिस भाव से पूजा की जाती है वही भाव भक्तों को वरदान के रूप में मिलता है। यही कारण है कि काफी दूर-दूर से और दूसरे राज्यों से भी माता के भक्त यहां अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए पूजा करने आते हैं। यहां ब्राह्मणों द्वारा विधि विधान से पूजा कराई जाती है। मंदिर के इतिहास के बारे में यहां के प्रबुद्ध जन बताते हैं कि 1100 साल पहले महामाया मंदिर की स्थापना हुई थी। मां महामाया की मूर्ति स्थापित की गई थी। ऐसी मान्यता है कि मां की मूर्ति ढंक कर रखी जाती है। खुले आंखों से मां की मूर्ति देखने पर आंखों की रोशनी चली जाती है। इस मंदिर के पुजारी जब मां का वस्त्र बदलते हैं तो आंखों पर काली पटी बांध लेते हैं। हालांकि महामाया की मूर्ति और मंदिर की स्थापना को लेकर विरोध भी हुआ था। इलाके में कुछ लोगों ने लड़ाई भी किया था और मां की पूजा करने वाले बरजू राम की पत्नी और बच्चे की हत्या कर दी गई थी। उसी समय आकाशवाणी हुई थी कि तुम आक्रमणकारियों के ऊपर टूट पड़ो। आगे बढ़ते जाओ। पीछे मुड़ कर मत देखना नहीं तो सर धड़ से अलग हो जाएगा। बरजू राम के सहयोगी राघव राम हमलावरों पर टूट पड़े थे। जब सभी को मौत के घाट उतार दिया तो उसे मां महामाया की बात याद आयी और अचानक पीछे मुड़ गया और उसका सर धड़ से अलग हो गया। महामाया मंदिर अब दूसरे जगह पर स्थापित है। 1889 में कोल विद्रोह हुआ था। विद्रोहियों ने मंदिर को ध्वस्त कर दिया था। पहले मंदिर का दरवाजा पूर्व की ओर था। विद्रोहियों ने यह चुनौती दी थी कि तुम में सचमुच शक्ति है तो मंदिर का दरवाजा पूर्व से पश्चिम की ओर हो जाए। इस पर वहां अचानक आवाज हुई और मंदिर का दरवाजा पूरब से पश्चिम की ओर हो गया। यह मंदिर हापामुनी गांव की पहचान है। कहा जाता है कि नागवंश के 22 वें राजा गजाधर राय और राम मोन राय के बेटे द्वारा इस मंदिर का निर्माण 869 ईसवी से 905 ईसवी तक कराया गया। उन्होंने मंदिर की देखभाल की जिम्मेवारी अपने गुरु हरिनाथ को सौंप दी थी। इस मंदिर में राजा शिवदास ने भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित की है। यह मंदिर उपासकों के लिए आस्था का केन्द्र हैं और यहां हर पूर्णिमा को बड़ी संख्या में लोग पूजा करने आते हैं।

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