जैन मुनि विश्वयश सागरजी महाराज ने ली समाधि, नौ दिनों से त्याग दिया था जल
गिरिडीह करीब 82 साल के जैन मुनि विश्वयशजी महाराज ने सम्मेद शिखरजी मधुबन की 13 पंथी कोठ

गिरिडीह : करीब 82 साल के जैन मुनि विश्वयशजी महाराज ने सम्मेद शिखरजी मधुबन की 13 पंथी कोठी में बुधवार को दोपहर सवा बारह बजे देह त्याग दी। उन्होने समाधि ले ली। वह यहां जीवन की अंतिम साधना संथारा पर थे। इसे सल्लेखना भी कहते हैं। नौ दिनों से उन्होंने जल भी त्याग दिया था। इससे पहले वे अन्न भी ग्रहण करना छोड़ चुके थे।
आचार्य विशुद्ध सागरजी महाराज समेत 30 दिगंबर साधु इसी कोठी में चातुर्मास कर रहे हैं। दर्जन भर साधु सल्लेखना कर रहे विश्वयश सागरजी महाराज की दिनरात सेवा कर रहे थे। कभी भी उन्हें अकेला नहीं छोड़ा जा रहा था। श्रद्धालु भी उनका दर्शन कर खुद को धन्य महसूस कर रहे थे। विश्वयश सागरजी महाराज आचार्य विराग सागरजी महाराज के शिष्य थे। उनके साथ करीब तीन साल पूर्व मधुबन पहुंचे थे। तब से यहीं थे। उन्होंने सम्मेद शिखरजी में ही सल्लेखना का निर्णय लिया था। सम्मेद शिखरजी मधुबन की 13 पंथी कोठी के पीछे पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार किया गया। संन्यास लेने के पूर्व विश्वयशजी महाराज का नाम प्रेमचंद आजाद जैन था। उनका जन्म पांच जनवरी 1940 को हुआ था। पिता का नाम वीरनलाल जैन था। वह मूलत: मध्य प्रदेश के जबलपुर के रहने वाले थे।
यह है सल्लेखना : दिगंबर जैन साधु के पैरों में जब तक खड़े होने की ताकत रहती है तभी तक वे भोजन करते हैं और पानी पीते हैं। साधु बनते वक्त संकल्प लेते हैं कि जब तक खड़े होने की ताकत रहेगी, तभी तक भोजन व जल ग्रहण करेंगे। अधिक उम्र होने के कारण जब खड़े होने की ताकत खत्म हो जाती है तो उसी दिन से अन्न व जल त्याग देते हैं। यह साधु के जीवन की अंतिम साधना है। इसे सल्लेखना या संथारा कहते हैं। इसका समापन साधु के शरीर त्यागने से होता है।
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