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    नाच-गाना नहीं, ये है शोक का पर्व: जब एक राजकुमारी की याद में गाए जाते हैं 'भादु गीत'

    Updated: Sat, 13 Sep 2025 03:12 PM (IST)

    भादो महीने में झारखंड और पश्चिम बंगाल में भादु पर्व और भादु गीत गाने की एक पुरानी परंपरा है। यह पर्व जो मूल रूप से पंचकोट की राजकुमारी भद्रवती की याद में मनाया जाता है अब लोक संस्कृति का प्रतीक बन गया है। खासकर अविवाहित लड़कियां और महिलाएं इसे मनाती हैं। इस पर्व में जीवन के संघर्षों और पौराणिक कथाओं पर आधारित गीत गाए जाते हैं।

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    झारखंड व पश्चिम बंगाल के कई हिस्सों में लोक पर्व भादु गीत गाने की परंपरा।

    संवाद सूत्र, जागरण रानीश्वर (दुमका)। दुमका के रानीश्वर प्रखंड में भादो माह में मनाया जाने वाला भादू पर्व पारंपरिक तरीके से मनाने की परंपरा कायम है। भादू गीत सुनकर लोग काफी रोमांचित होते हैं। दरअसल झारखंड और पश्चिम बंगाल के कई क्षेत्रों में भादू पर्व उत्सव अलग-अलग रूपों में मनाया जाता है। इसके गीतों की धुन और नृत्य में दरबारी झुमर की छाप विशिष्ट है।

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    भादु गीत का इतिहास मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल के पंच कोट के राजा और उनकी पुत्री भद्रवती या भद्रेश्वरी से जुड़ी है। भद्रवती की मृत्यु का कारण आज भी स्पष्ट नहीं है लेकिन इसको लेकर कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। यह एक शोक पर्व के लोक पर्व में स्थापित होने की कहानी है।

    भादु गान की उत्स भूमि मानभूम पुरुलिया

    कुछ लोगों का कहना है कि भद्रेश्वरी नामक एक राजकुमारी के कथित तौर पर सती हो जाने के बाद हर साल उसे भादु पर्व एवं भादु गान के रूप में याद करने का प्रचलन शुरू हुआ था। इसके गीतों में इसकी पूरी कहानी समाई हुई है। समय के साथ यह दो राज्यों झारखंड व पश्चिम बंगाल में लोक पर्व में तब्दील होकर आस्था एवं विश्वास का प्रतीक पर्व बन गया है। वैसे भादु गान की उत्स भूमि मानभूम पुरुलिया है। इसके अंतर्गत ही पंचकोट की अंतिम राजधानी काशीपुर अवस्थित है। इस पर्व का संबंध इसी काशीपुर राजघराना से जुड़ा है।

    पुरुलिया, पश्चिम बांकुड़ा, पश्चिम वर्द्धमान के कई इलाकों के अलावा झारखंड के रांची जिले के सिल्ली, मुरी, बुंडू, तमाड़ समेत समग्र पंच परगनिया एवं छोटानागपुर प्रमंडल सहित दुमका, जामताड़ा में भादु गान का प्रचलन है। इसे विशेष तौर पर कुंवारी कन्याएं गाती-मनाती हैं। पूरा उत्सव स्त्री पर केंद्रित है। इसमें पुरुषों का प्रवेश वर्जित है।

    बंगभाषियों में लोकप्रिय है भादू गीत

    भादु गान की सृष्टि के बारे में गजेटियर आफ बंगाल में पुरुलिया ग्रंथ में भी प्रकाशित हुआ है। भादु गीत और नृत्य शैली के प्रवर्तक के रूप में जिन नामों का उल्लेख होता है उनमें ध्रुवेश्वरलाल सिंहदेव, प्रकृतिश्वरलाल सिंहदेव और राजेंद्र नारायण सिंहदेव का नाम शुमार है। बाद में समय और क्षेत्र विशेष के अनुसार गीतों की ताल-मात्रा व नृत्य शैलियों में कुछ बदलाव भी होता रहा है लेकिन भादू गीत के मूल भाव अब भी अक्षुण्ण है।

    भादु गीत के मूलत: दो प्रकार है। इसमें एक मार्गी जिसमें उच्च साहित्यिक गुणवत्ता है और दूसरे में लोक जीवन से जुड़े गीत शामिल हैं। भादु गीत मूलतः ग्रामीण महिलाओं द्वारा गाया जाता है और यह भाद्र मास के एक विशेष उत्सव को केंद्र में रखकर विकसित हुआ है। यह गीत आमतौर पर साधारण गृहिणियों के जीवन की कहानियां, पौराणिक कथाएं और सामाजिक विषयों के आधार पर रचे जाते हैं।

    पूरे भादो माह में भादु पुजा और शाम को गांव की महिलाओं के समूहों द्वारा भादु गीत गाने की परंपरा है। परंपरा के तहत संक्रांति के दिन भादु प्रतिमा का विसर्जन किया जाता हैं। भादु गीत मंडली में एक मुख्य गायक के अलावा चार या छह सह गायक जिसे दोहारी कहते हैं को शामिल किया जाता है।

    जामताड़ा के आमडूबी गांव, बाबुपुर, दुमका के काठीकुंड और रानीश्वर प्रखंड में विभिन्न सार्वजनिक भादु-दल भादो मास में गांव-गांव में भादु प्रतिमा के साथ भादु गीत प्रस्तुत करते हैं। इनके दलों द्वारा गाए गए गीत में दैनिक जीवन संघर्षों की प्रतिबद्धता झलकती है।

    - दयामय माजि, सेवानिवृत्त शिक्षक

    प्रारंभिक काल में भादु की कोई मूर्ति नहीं होती थी। कांसे की थाली में गोबर के ऊपर धान रखकर पूजा की जाती थी। बाद में हंस या मोर की सवारी पर भादु की मूर्ति बनाने की परंपरा शुरू हुई। कहीं-कहीं मूर्ति की गोद में राधा-कृष्ण युगल या शिशु को सजाने की परंपरा भी देखी जाती है। यह लोकसंस्कृति का एक समृद्ध और जीवंत दस्तावेज है जो वर्तमान में विलुप्त हो रहा है।

    - मेनका घोष, व्याख्याता, एएन कालेज, दुमका