स्मृति शेष... AK Roy: आसमां में खो गया जमीं का सितारा
कॉमरेड एके राय को राजनीति के संत की उपमा यूं ही नहीं दी गई। उसके वे हकदार भी थे। न कोई बैंक बैलेंस न अपना मकान और गाड़ी।
धनबाद [राजीव शुक्ला]। तीन बार धनबाद के सांसद व सिंदरी विधायक रहे कॉमरेड एके राय आज हमारे बीच नहीं हैं। धरती का यह सितारा हमें छोड़कर आसमां में खो गया। बावजूद उनकी सादगी और राजनीति में कायम की गई शुचिता देश के इतिहास में हमेशा स्वर्ण अक्षरों में दर्ज रहेगी।
कॉमरेड एके राय को राजनीति के संत की उपमा यूं ही नहीं दी गई। उसके वे हकदार भी थे। न कोई बैंक बैलेंस, न अपना मकान और गाड़ी। धनबाद के नुनूडीह स्थित एक कार्यकर्ता का क्वार्टर सह मार्क्सादी समन्वय समिति का कार्यालय ही उनका घर रहा। संगठन कार्यकर्ता उनका परिवार। सांसद बनने के बाद कभी पेंशन नहीं ली। एक चौकी पर ही हमेशा बिस्तर सजा। लाल सलाम हमेशा जेहन में रचा-बसा रहा। उनके पास कभी भी कोई गया तो सबसे पहले हाथ उठाकर लाल सलाम ही करते थे। जिंदगी का एक ही मकसद था, गरीब और मजदूरों के हित के लिए जीवन अर्पण हो।
15 वर्ष पहले वे पैरालिसिस का शिकार हो गए थे। मधुमेह के कारण सेहत गिरती गई। चेहरे पर तेज और समाजसेवा का जुनून हमेशा उनकी आंखों में देखा गया। उनके कमरे में एक तख्त, कुछ किताबें, अखबार और कमरे के एक कोने में रखे लाल झंडे ही उनकी पूंजी रहे। वर्षों तक राय दा की देखभाल करने वाले मासस कार्यकर्ता सबूर गोराई बताते हैं कि आज के नेता बड़ी गाडिय़ों मे चलते हैं। पर, राय साहब का पूरा जीवन आदर्श रहा। जब सांसद थे तब भी सामान्य डिब्बे में सफर करते थे। सांसदों के वेतन बढऩे का मामला संसद में उठा तो सिर्फ एके राय ने विरोध किया था। जब सक्रिय राजनीति में थे तो हमेशा कहते थे कि देश के मजदूर और गरीबों को जब दरी तक नसीब नहीं है तो हम शानदार पलंग पर कैसे सो सकते हैं। आदिवासियों के गांवों में जाते थे तो उनका हाल देख रो पड़ते थे। कहते थे कि इन गरीबों पर मुकदमा हो जाए तो पुलिस तुरंत पकड़ती है। माफिया ताकतों के लिए वारंट निकलते हैं। उसके बाद भी वे धनबल के सहारे आराम से घूमते हैं। यही बातें उन्हें आजीवन कचोटती रहीं। इसलिए पूरा जीवन गरीबों, मजदूरों और आदिवासियों के लिए संघर्ष करते गुजार दिया। जीवन भर कुर्ता, पायजामा और रबड़ की चप्पलें पहनीं। कभी कोई शौक नहीं रहा। सुदामडीह के स्लरी मजदूरों के लिए दादा 18 वर्ष तक लड़ाई लड़ते रहे और कोयला कंपनी में मजदूरों को स्थायी नौकरी दिलाई। ऐसे सैकड़ों आंदोलन उन्होंने किए। जीवन के अंतिम दस वर्ष तो राय दा चलने में बिल्कुल असमर्थ हो गए। व्हील चेयर पर ही जीवन कटने लगा था। बावजूद सुबह-शाम कार्यकर्ताओं के बीच जरूर आते थे। मौन अंदाज में एक ही संदेश देते थे जब गरीबों को उनका हक मिलेगा और गरीब दो वक्त की रोटी चैन से खा सकेंगे, तभी हम सभ्य दुनिया के वासी कहलाएंगे।
नहीं की शादी, कार्यकर्ता ही परिवार : इस कॉमरेड ने मानव सेवा के लिए खुद परिवार नहीं बसाया। उनके तीन भाई व एक बहन हंै। जो कोलकाता में रहते हैं। कुछ समय पूर्व जब वे बीमार हुए थे तो उनके भाई तापस राय उन्हें देखने धनबाद आए थे। तब भी दादा उनके साथ नहीं गए। कार्यकर्ताओं के साथ ही रहने की जिद की थी। कार्यकर्ता भी उन्हें फरिश्ते से कम नहीं मानते थे। कार्यकर्ता रंजीत उनकी दाढ़ी बनाता था। ललिता हाडिऩ भोजन बनाकर खिलाती थीं। पुतुल और गुडिय़ा आकर कपड़े धोती थीं। दाल-रोटी, दलिया के अलावा कुछ फल, अंकुरित मूंग व दूध ही इनका आहार थे।
बांग्लादेश में हुआ था जन्म : कामरेड एके राय का जन्म 15 जून 1935 में पूर्वी बंगाल के राजशाही जिले के सापुरा नामक गांव में हुआ था। यह स्थान अब बांग्लादेश में है। नवगांव विलेज स्कूल से मैट्रिक 1951 में किया। वेल्लूर के रामकृष्ण मिशन स्कूल से आइएससी वर्ष 53 में किया। बाद में कोलकाता के सुरेंद्र नाथ कॉलेज आए। यहां से बीएससी वर्ष 55 में किया। 1959 में कोलकाता विवि. से केमिकल इंजीनियङ्क्षरग में डिग्री ली।
मजदूरों का दुख देख छोड़ दी थी सरकारी नौकरी : 1961 में भारत सरकार के उपक्रम पीडीआइएल (प्रोजेक्ट एंड डेवलपमेंट इंडिया लिमिटेड) ङ्क्षसदरी में एके राय की नौकरी लगी। बतौर अभियंता काम शुरू किया। 1966 में कोयलांचल के कामगारों की दशा देख दुखी हुए और नौकरी छोड़ दी। वे वामपंथी विचारधारा से भी प्रभावित थे। किसान संग्राम समिति व माक्र्सवाद समन्वय का गठन किया। वर्ष 1977, 80 व 89 में धनबाद के सांसद रहे। 1967, 69 व 72 में सिंदरी से विधायक रहे। जान लें कि झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन भी कॉमरेड एके राय ने झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन, बिनोद बिहारी महतो समेत कई अन्य साथियों के साथ मिलकर किया था। हालांकि अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहते हुए इस संगठन से बाद में नाता तोड़ लिया था।
...और बीसीकेयू कार्यालय का नहीं किया था उद्घाटन : एके राय की सादगी के बारे में अलकडीहा निवासी कोल कर्मी समीर ठाकुर बताते हैं कि वर्ष 1992 की बात है। गोलकडीह में बिहार कोलियरी कामगार यूनियन का शाखा कार्यालय खुला था। कॉमरेड राय इस यूनियन के माध्यम से मजदूरों की लड़ाई लड़ते थे। कार्यालय का उद्घाटन करने दादा को बुलाया गया था। वे आए पर व्यवस्था देख नाराज हो गए। दरअसल कार्यालय में कई कुर्सियां लगी थीं। ट्यूब लाइट से प्रकाश हो रहा था। यह देख दादा बोल उठे थे कि यह तो मजदूर संगठन का कार्यालय है। यहां तो दरी और बल्ब होना चाहिए। यह कहकर बिना उद्घाटन के ही चले गए थे।