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    इस वजह से संताल की ओर कूच कर गए थे शिबू सोरेन, 1980 से शुरू हुआ दुमका से दिशोम गुरु की जीत का सिलसिला

    Updated: Mon, 22 Apr 2024 11:17 AM (IST)

    Lok Sabha Election 2024 झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन को टुंडी से देशभर में पहचान मिली लेकिन वह वहां से विधानसभा का चुनाव नहीं जीत सके। उनको दिशोम गुरु की पदवी भी यहीं से मिली लेकिन सियासी प्राण उन्‍हें संताल परगना ने दिया। 1977 में अपने पहले विधानसभा चुनाव में हार के बाद उन्‍होंने संताल कूच किया था और इसी का अपना राजनीतिक केंद्र बनाया।

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    एके राय के साथ शिबू सोरेन (फाइल फोटो) - जागरण।

    दिलीप सिन्हा, धनबाद। झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन को उनकी राजनीतिक जन्मभूमि टुंडी ने ऐतिहासिक सम्मान दिया। उनको दिशोम गुरु (देश का गुरु) की पदवी यहां मिली। इसके बावजूद धनबाद की टुंडी विधानसभा सीट पर वह जीत हासिल नहीं कर सके और ना ही धनबाद से सांसद बने।

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    गुरुजी को संताल परगना ने दिया सियासी प्राण

    शिबू को बराकर नदी पार जाने के बाद संताल परगना ने सियासी प्राण दिया। दिशोम गुरु की उपाधि पाने के बाद शिबू सोरेन 1977 में अपना पहला विधानसभा चुनाव टुंडी से लड़े थे। इस चुनाव में वह जनता पार्टी के सत्य नारायण दुदानी से हार गए थे।

    इस हार से आहत शिबू सोरेन टुंडी की सीमा बराकर नदी पार कर संताल परगना कूच कर गए थे। संताल परगना को उन्होंने अपनी राजनीति का केंद्र बनाया। वहां उनका जादू ऐसा चला कि मात्र ढाई साल बाद 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के किला दुमका में अपना झंडा गाड़ दिया। इसके बाद वह यहां से लगातार जीते।

    कांग्रेस के किले को ध्वस्त कर बने संताल के बादशाह

    शिबू सोरेन ने 70 के दशक में भूमिगत रहकर टुंडी में आदिवासियों को गोलबंद किया था। इसके बाद वहां महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ लंबा संघर्ष छेड़ा था। यह संघर्ष धनकटनी आंदोलन के नाम से चर्चित हुआ था।

    इस आंदोलन में ही आदिवासियों ने उन्हें दिशोम गुरु की उपाधि से नवाजा था। इस ऐतिहासिक आंदोलन के बावजूद शिबू टुंडी में विधानसभा चुनाव हार गए। संताल में भी धनकटनी आंदोलन जोर पकड़ चुका था।

    शिबू अपने संघर्ष के बल पर आदिवासियों के सर्वमान्य नेता बन चुके थे। इसके बाद वह 1980 के लोकसभा चुनाव में दुमका से लड़े। तब तक झामुमो को राजनीतिक पार्टी की मान्यता नहीं मिली थी।

    1980 में दुमका में कांग्रेस के दिग्गज नेता पृथ्वीचंद किस्कू को हराकर वह पहली बार लोकसभा पहुंचे थे। इस चुनाव में निर्दलीय लड़ रहे शिबू सोरेन को 1,12,160 वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस के पृथ्वीचंद किस्कू को 1,08,647 वोट मिले थे। जेएनपी के बटेश्वर हेंब्रम को 37084 एवं भाकपा के शत्रुघ्न बेसरा को 36,246 मत मिले थे।

    दुमका सीट पर दिलचस्‍प थी लड़ाई

    इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में हुए चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में लहर थी। इस लहर में शिबू भी दुमका भी नहीं टिके। कांग्रेस के पृथ्वीचंद किस्कू ने उन्हें हरा दिया। पृथ्वीचंद किस्कू को 1,99,722 एवं शिबू सोरेन को 1,02,535 मत मिले थे।

    दुमका लोकसभा सीट पर मिली हार के बाद 1985 में हुए विधानसभा चुनाव में शिबू दुमका लोकसभा क्षेत्र के जामा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़े और जीतकर विधानसभा पहुंचे। इसके बाद हुए 1989 लोकसभा चुनाव में शिबू फिर दुमका से लड़े और कांग्रेस के पृथ्वीचंद किस्कू को हराकर अपनी सीट वापस ले ली।

    शिबू सोरेन को 2,47,502 वोट मिले थे जबकि पृथ्वीचंद किस्कू 1,37,901 वोटों पर सिमट गए थे। शिबू लगातार 1991 और 1996 में दुमका से जीते। शिबू 98 में भाजपा के बाबूलाल मरांडी से 13 हजार वोटों से हार गए। 2002 लोकसभा उप चुनाव में शिबू फिर से दुमका सीट पर वापसी की। इसके बाद 2004, 2009 और 2014 में भी दुमका से चुनाव जीते।

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