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    Shibu Soren Journey: धनकटनी आंदोलन और रात्रि प्रहरी, जानिए धनबाद से शिबू सोरेन के दिशोम गुरु बनने की कहानी

    By Ashish Singh Edited By: Rajesh Kumar
    Updated: Mon, 04 Aug 2025 02:43 PM (IST)

    शिबू सोरेन का राजनीतिक सफर धनबाद से शुरू हुआ जिसने उन्हें झारखंड आंदोलन का नायक बना दिया। धनबाद में दिशोम गुरु के नाम से प्रसिद्ध उनकी ग्रामीण कहानियां आज भी टुंडी गिरिडीह और दुमका में सुनाई जाती हैं। 1970 के दशक में उन्होंने आदिवासियों की ज़मीन बचाने के लिए संघर्ष किया। गुरुजी के दरबार में विवादों का निपटारा होता था।

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    शिबू सोरेन का राजनीतिक सफर धनबाद से शुरू हुआ। फाइल फोटो

    आशीष सिंह, धनबाद। शिबू सोरेन के राजनीतिक सफ़र में धनबाद का विशेष महत्व है। यहीं से शुरू हुआ उनका संघर्ष सम्पूर्ण झारखंड आंदोलन में बदल गया और वे आदिवासी समाज के राष्ट्रीय नायक बनकर उभरे। धनबाद से उनकी पहचान ने उन्हें दिशोम गुरु बना दिया। एक सम्मानजनक उपाधि जो आज भी आदिवासी समुदाय में जीवित है।

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    वरिष्ठ पत्रकार बनखंडी मिश्रा बताते हैं कि दिशोम गुरु से जुड़ी कई ग्रामीण कहानियाँ या जन-स्मृतियाँ आज भी धनबाद, टुंडी, गिरिडीह, दुमका और बोकारो क्षेत्रों में सम्मान और गर्व के साथ सुनाई जाती हैं। ये कहानियां गुरुजी के संघर्षपूर्ण जीवन, ज़मीनी स्तर के नेतृत्व और साहसिक निर्णयों की गवाही देती हैं। कहानियाँ सिर्फ़ घटनाएँ नहीं, बल्कि लोगों की स्मृतियाँ होती हैं।

    स्थानीय आदिवासी समाज ने इन्हें लोक इतिहास के रूप में संजोकर रखा है। इससे पता चलता है कि शिबू सोरेन का कद एक राजनीतिक नेता से ज़्यादा एक सामाजिक और नैतिक नेता के रूप में विकसित हुआ।

    धनकटनी आंदोलन और रात्रि प्रहरी

    1970 के दशक में जब टुंडी के आसपास साहूकारों ने आदिवासियों की ज़मीनों पर कब्ज़ा करना शुरू किया, तो शिबू सोरेन ने कहा था कि अगर बीज बोए हैं, तो फसल भी आपकी ही होगी। चाहे क़ानून कुछ भी कहे। गुरुजी खुद रात में पहरा देते थे ताकि साहूकार या उनके लोग जबरदस्ती फ़सल न काट लें। गाँव वालों का मानना है कि एक बार उन्होंने अकेले ही एक साहूकार के गुर्गों को लाठी से भगा दिया था। जिसके कारण लोग उन्हें धरती का रक्षक कहने लगे।

    निर्णयों की पंचायत: गुरुजी का दरबार

    गुरुजी का दरबार टुंडी, नारायणपुर, तोपचांची में लगता था। स्थानीय गाँवों में विवादों को निपटाने के लिए लोग अदालत जाने के बजाय शिबू सोरेन के पास जाते थे। एक बार जल स्रोत को लेकर दो गाँवों के बीच गंभीर विवाद हो गया। सरकार ने उनकी बात नहीं सुनी। तब शिबू सोरेन ने दोनों पक्षों को एक साथ बैठाया।

    उन्होंने ज़मीन पर एक रेखा खींच दी और कहा कि पानी बँटेगा नहीं, सबके लिए बहेगा। तुम लोग बाँटना बंद करो, सहन करना सीखो। यह गुरुजी के दरबार के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आज भी गाँव वाले कहते हैं, अगर गुरुजी होते तो यह मामला वहीं सुलझ जाता।

    हाथी पर आए, बैलगाड़ी पर लौटे

    यह बाघमारा की कहानी है। एक बार कुछ बाहरी माफिया जंगल के आदिवासियों की ज़मीन हड़पने के लिए हाथी पर सवार होकर आए। शिबू सोरेन को सूचना मिली और वे गाँव पहुँच गए। वे अकेले गए, लेकिन गांव वाले लाठी-डंडे लेकर उनके पीछे लग गए।

    माफिया डर गए और अपना हाथी छोड़कर बैलगाड़ी पर भाग गए। तब से वहाँ एक कहावत बन गई कि आए तो हाथी पर, लेकिन लौटे तो बैलगाड़ी पर। गुरुजी ने यह देख लिया था।

    सबके लिए एक रोटी: गुरुभोज की परंपरा

    यह तोपचांची और टुंडी इलाके की बात है। हर आंदोलन या सभा के बाद शिबू सोरेन कभी अलग से खाना नहीं खाते थे। जब गाँवों में मज़दूर थककर बैठ जाते, तो वह कहते कि तुमने लड़ाई तो लड़ ली, अब सबको साथ मिलकर खाना चाहिए। एक बार गाँव में पाँच रोटियाँ थीं और पच्चीस लोग। उन्होंने कहा कि रोटियाँ गिननी नहीं हैं, बाँटनी हैं। सबने थोड़ी-थोड़ी खाई और उनका पेट भर गया। गुरुभोज की शुरुआत कुछ इस तरह हुई।

    कुएं में डूबी पंचायत: साहस की परीक्षा

    गोमो-टुंडी सीमा क्षेत्र के एक गांव में पंचायत बैठी थी। जहां साहूकार ने कुछ आदिवासी लड़कियों पर ज़बरदस्ती शादी का दबाव बनाया। बहस इतनी बढ़ गई कि पंचायत के बीच में ही एक बूढ़ा आदमी गुस्से में कुएं में कूद गया और बोला कि जब तक गुरुजी न्याय नहीं करेंगे, मैं बाहर नहीं निकलूंगा।

    शिबू सोरेन तुरंत वहां पहुंचे, पूरी पंचायत को वहीं बिठाया और कहा कि वह न तो आपकी बेटी है, न ही साहूकार की। ज़बरदस्ती का नाम ही अन्याय है। बूढ़ा आदमी बाहर आया और लड़की की सहमति से शादी तय हो गई।

    तत्कालीन उपायुक्त ने उन्हें गुरुजी नाम दिया था

    शिबू सोरेन को पहली बार गुरुजी कहकर धनबाद ज़िले के तत्कालीन उपायुक्त केबी सक्सेना ने संबोधित किया था। कहा जाता है कि केबी सक्सेना एक बेहद ईमानदार आईएएस अधिकारी के रूप में जाने जाते थे।

    एक बार वे टुंडी स्थित शिबू सोरेन के आश्रम गए और वहाँ बच्चों, आदिवासियों, स्कूल और शराबबंदी के कल्याण के लिए किए जा रहे कार्यों को देखकर उन्हें गुरुजी कहकर संबोधित किया। इसके बाद से शिबू सोरेन गुरुजी के नाम से प्रसिद्ध हो गए।