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भिखारी ठाकुर के 'बेटी बेचवा' का कोयला मजदूरों पर हुआ था व्याप्क असर, शो के दाैरान रोते हुए खाई यह कसम

Bhikhari Thakur Birth Anniversary 2021 पुराना बाजार के एक धर्मशाला में भिखारी ठाकुर ने बेटी बेचवा नाटक का मंचन किया। नाटक का व्यापक असर हुआ। उनके शो के दौरान लोगों ने रोते हुए कसमें खाई- ना तो हम अपनी बेटी बेचेंगे ना ही ज्यादा उम्र के लोगों से ब्याह करेंगे।

By MritunjayEdited By: Published: Fri, 17 Dec 2021 10:04 PM (IST)Updated: Sat, 18 Dec 2021 04:21 AM (IST)
भिखारी ठाकुर के 'बेटी बेचवा' का कोयला मजदूरों पर हुआ था व्याप्क असर, शो के दाैरान रोते हुए खाई यह कसम
भोजपुरी के लोक कलाकार भिखारी ठाकुर ( फाइल फोटो)।

जागरण डिजिटल डेस्क, धनबाद। भिखारी ठाकुर। यह वह नाम है जो भोजपुरी भाषियों के बीच बड़ा ही सम्मान से लिया जाता है। बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। एक लोक कलाकार के साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। भोजपुरी उनकी मातृभाषा थी और इसे ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनाया।  उनकी प्रतिभा का आलम यह था कि महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उनको 'अनगढ़ हीरा' कहा, तो जगदीश चंद्र माथुर ने कहा 'भरत मुनि की परंपरा का कलाकार'। बिहार का शेक्सपीयर कहा गया। उनकी नाटकों ने अविभाजित बिहार ( बिहार-झारखंड), पश्चिम बंगाल और ओडिशा के लोक जीवन को खूब प्रभावित हुआ। विषय ही ऐसे होते थे-वियोग और विरह के। धनबाद कोयलांचल के मजदूरों पर इस कदर असर पड़ा कि सामूहिक रूप से बेटी नहीं बेचने और ज्यादा उम्र के मर्द से ब्याह नहीं करने का सामूहिक रूप से संकल्प लिया। 

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जयंती पर दुनियाभर के भोजपुरी भाषी गर्व से कर रहे याद

भिखारी ठाकुर की आज जयंती है। इस माैके पर उन्हें भोजपुरी अंचल के साथ-साथ दुनियाभर में बसे भोजपुरी भाषी उन्हें याद कर रहे हैं। वह मूल रूप से बिहार के सारण जिले के कुतुबपुर (दियारा) गांव के निवासी थे। उनका जन्म 18 दिसम्बर, 1887 को एक गरीब नाई परिवार में हुआ था। उनके पिताजी का नाम दल सिंगार ठाकुर व माताजी का नाम शिवकली देवी था। वे जीविकोपार्जन के लिये गांव छोड़कर खड़गपुर चले गए। वहां उन्होने काफी पैसा कमाया किन्तु वे अपने काम से संतुष्ट नहीं थे। रामलीला में उनका मन बस गया था। इसके बाद वे जगन्नाथ पुरी चले गये। फिर अपने गांव आकर उन्होने एक नृत्य मण्डली बनायी और रामलीला खेलने लगे। इसके साथ ही वे गाना गाते एवं सामाजिक कार्यों से भी जुड़े। इसके साथ ही उन्होने नाटक, गीत एवं पुस्तके लिखना भी आरम्भ कर दिया। उनकी पुस्तकों की भाषा बहुत सरल थी जिससे लोग बहुत आकृष्ट हुए। उनकी लिखिइ किताबें वाराणसी, हावड़ा एवं छपरा से प्रकाशित हुईं। 10 जुलाई 1971 को चौरासी वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

धनबाद में 'बेटी बेचवा' के मंचन का कोयला मजदूरों पर हुआ प्रभाव

भिखारी ठाकुर की सोच समय से बहुत आगे की थी। उनके नाटकों से यह साबित होती है। धनबाद के वयोवृद्ध पत्रकार वनखंडी मिश्र साल 1962 को याद करते हैं। पुराना बाजार के एक धर्मशाला में भिखारी ठाकुर ने 'बेटी बेचवा' नाटक का मंचन किया। इस नाटक को देखने के लिए कोयला मजदूर भी पहुंचे थे। नाटक अपना काम कर गया। व्यापक असर हुआ। उनके शो के दौरान लोगों ने रोते हुए कसमें खाई थी की ना तो हम अपनी बेटी बेचेंगे ना ही ज्यादा उम्र के लोगों से ब्याह करेंगे। भिखारी ठाकुर के जाने के कुछ दिनों बाद धनबाद जिले के लायकडीप में एक मंदिर में बड़ी संख्या में हजरबगिया मजदूर जमा हुए। भगवान शिव को साक्षी मानकर बेटी को नहीं बेचने का संकल्प लिया। यह बात धनबाद से निकलकर दूर-दूर तक गई। 

भिखारी के नाटकों के केंद्र में माइग्रेसन

आज भी भोजपुरी के हर दूसरे-तीसरे गीतों में माइग्रेसन केंद्र होता है। यह परंपरा भिखारी ठाकुर ने शुरू की। चूंकि लोग रोजी-रोटी के लिए घर-परिवार को छोड़कर परदेस चले जाते थे। इसकी विरह और वेदना पत्नी झेलती थी। अब भिखारी ठाकुर के इस गीत को ही लीजिए-सइयां गइले कलकतवा ए सजनी/ गोड़वा में जूता नइखे, हाथवा में छातावा ए सजनी/ सइयां कइसे चलिहें राहातावा ए सजनीं... । पति–पत्नी के बीच अटूट प्रेम के रिश्ते। दोनों के बीच बिछड़न और फिर पत्नी का पति के प्रति ख्याल। इस प्रेम बंधन को दिखाती हुई ये खूबसूरत पंक्तिया। सात दशक पहले लिखी गई जो आज भी प्रसांगिक है। हो सकता है समय बीतने के साथ इसको कहने का तरीका बदल गया हो। लेकिन आज भी जब अपना कोई घर से बाहर जाता है तो कोई उसके दिल के करीब उसका ऐसा ही ख्याल रखता है। इसकी रचना करने वाले कला के क्षेत्र में अपनी ऐसी अमिट छाप छोड़ गए कि किसी ने उन्हें उनके लिखे गए नाटक के लिए बिहार का 'शेक्सपीयर' कहा तो किसी ने उनके रचना के लिए तुलसीदास कहा तो, किसी ने उनके लेख के लिए उन्हें भारतेंदु कहा।

भिखारी के नाटकों में उमड़ती भीड़ से अंग्रेज भी थे सर्तक

भिखारी ठाकुर अपने नाटकों से अंग्रेजी राज के खिलाफ लोगोंं को जागरूक करते थे। कोलकाता में तो उनकी नाटकों में बड़ी संख्या में लोग जुटते थे। यह भीड़ देख अंग्रेज सतर्क रहते थे। हालांकि उनके नाटकों के विषय-वस्तु से अंग्रेज भी प्रभावित हुए। जिस अंग्रेजी राज के खिलाफ नाटक मंडली के माध्यम से ठाकुर जीवन भर जनजागरण करते रहे, बाद में उन्हीं अंग्रेजों ने उन्हें रायबहादुर की उपाधि दी। अपनी कलम से उन्होनें भोजपुरी संस्कृति को एक अलग पहचान दिलाई। बिहार के शेक्सपियर ने अपने जिंदगी में एक से बढ़कर रचनाएं की। कला प्रेमियों के बीच बिदेसिया नाटक से जाने जाने वाले भिखारी ठाकुर के अनगिनत नाटक हैं जो लोगों को आज भी याद हैं। 

भिखारी ठाकुर की नाैच शैली की हो चली माैत

नाट्य रचना गढ़ने में माहिर भिखारी को अपने नाटकों को लोगों तक पहुंचाने के लिए महिला कलाकारों की जरूरत थी। लेकिन उस जमाने में महिलाओं को उनके घूंघट से निकालकर स्टेज पर लाना मुश्किल था। इसका तोड़ उन्होनें पुरूषों को महिलाओं की तरह वेशभूषा पहनाकर निकाला। तब उन्होनें उस जमाने में पुरूषों को साड़ी पहनाकर स्टेज पर उनसे अभिनय करवाया तो लोगों ने उनके इस कदम को हाथों हाथ लिया। फिर क्या था, भिखारी के कलम से निकली रही रचनाएं नाटक के रूप में लोगों के बीच प्रसिद्धि पाने लगी। समाज को जागरूक करने वाली एक से एक रचनांए जब 'लौंडा नाच' के रूप में लोगों के बीच आने लगी तो लोगों के प्यार ने भिखारी ठाकुर को अभिभूत कर दिया। हालांकि आज बिहार में उस खांटी नाच शैली की मौत हो चली है, जिसके लिए भिखारी को पहचाना जाता है। औरतों की ड्रेस पहन लडक़ों या पुरुषों के नाचने की परंपरा यानी लौंडा नाच भी अब स्वतंत्र रूप से खत्म होने को है। इसका सबसे बड़ा कारण नर्तकियों का सर्वसुलभ होना है।

भिखारी के बहुचर्चित नाटक

बिदेसिया: इस नाटक के माध्यम से अपनों से दूर रहने के दर्द को नाटक के रूप में कहने की कोशिश की गई है। दर्द उन भोजपूरी नवविवाहित युवाओं के बारे में कहने की कोशिश की गई है, जिसमें कम उम्र के लोग अपने दोस्तों के बहकावे में आकर कलकत्ता का नाम सुनकर रोजी-रोटी के तलाश में अपने गांव और प्रदेश को छोड़कर वहां जाना चाहते हैं। इस नाटक में नायक विदेसी का जिक्र किया गया है। जो ऐसे ही हालातों में कलकत्ता जाता है। जाते समय उसकी पत्नी उसे रोकने की कोशिश करती है। लेकिन पत्नी मोह भी उसे रोक नहीं पाती। एक गाने के माध्यम से विदेसी की पत्नी की चिंता को दर्शाया गया है। नए शहर में जाकर नाटक का नायक विदेसी कैसे नए शहर में जाकर पराए औरत के प्रेम में पड़ जाता है। वहां जाकर अपने पत्नी के प्रेम को भूलने लगता है। लेकिन एक दिन उसके गांव का दोस्त बटोही उसकी पत्नी का संदेश लेकर आता है। पत्नी का करूणा से भरा संदेश सुनकर वो घर लौटने को मजबूर हो जाता है। इस कहानी की सरलता ही इसकी ताकत बनी। जिसने इसे सुना और देखा उसके आंखों से आंसू निकल गए। इस नाट्य के माध्यम से जिस खूबसूरती से विरह, प्रेम संबध, संबध विच्छेद और अंत में मिलन दिखाया है कि ये नाटक दिन ब दिन प्रसिद्ध होती चली गई। इस नाटक को भिखारी ठाकुर ने कई जगह जाकर लाइव परर्फाम किया। बाद में इस नाम से फिल्में भी बनी।

बेटी बेचवा: भिखारी ठाकुर ने अपने नाटक के माध्यम से उस समय के समाज के एक और कुरीति बाल-वृद्ध विवाह को दिखाने की कोशिश किया है। जिसमें पैसे के कमी के कारण लोग अपनी बेटी को या तो बेच देते थे या काफी बड़े उम्र के लोगों से शादी करवा देते थे। आजादी के आसपास के समय समाज में ये कुरीति अपने चरम पर थी। इस नाटक के माध्यम से बेटी के जन्म लेने को अपने घर में अपशकुन मानने वाले पर कुठाराघात किया था। उन्होनें इस नाटक के माध्यम से उस समय के पितृसत्ता समाज के उपर सवाल उठाए थे। जिसमें महिलाओं की कोई जगह नहीं थी-क्या गरीब ? क्या अमीर? दोनों जगह उस समय के समाज ने लड़कियों को चहरदिवारियों में रहना अच्छा समझते थे। जिसका नतीजा था कि महिलाओं की स्थिति दयनीय थी। अमीर घरों में विवाह लड़कियों के मर्जी के बिना शादी कर दिया जाता था। जबकि गरीबी में जूझ रहे लोग अपने बेटी को कुछ पैसे के खातिर बेच डालते थे। उनके इस नाटक का व्यापक असर हुआ।

विधवा विलाप: साहित्य, नाटक और लौंडा नाच कहने का तरीका एकदम सरल है लेकिन मुद्दे गंभीर हैं। भिखारी ठाकुर ने अपने नाटक के माध्यम से महिलाओं से जुड़ी एक और समस्या को उठाया। देश को सती-प्रथा से तो मुक्ति मिल गई थी लेकिन विधावाओं की स्थिति जस की तस थी। पति के मरने के बाद वो समाज में शापित मानी जाती थीं। साथ ही साथ उन्हें जिंदगी भर किसी पर आश्रित रहना पड़ता था। विधवा विलाप के किरदार का जिक्र उन्होनें बेटी बियोग/ बेटी वेचवा नाटक में भी किया था। इस समस्या को भिखारी ठाकुर ने बड़े दर्द के साथ दिखाया। समाज के ऊपर इसका सकरात्मक असर पड़ा। विधवा विलाप के उपर बनाया गया गीत 'हम कहि के जात बानी/ होई अबकी जीव के हानी/ नाहीं देखब नइहर नगरिया हो बाबूजी'-आज भी लोग गुनगुनाते हैं।


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