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    'आतंकियों ने पिता छीना तो मां ने भी छोड़ा साथ, दादा-दादी ने गले लगाया...', आतंकी पीड़ितोें की कहानी उनकी जुबानी

    By Naveen Sharma Edited By: Rahul Sharma
    Updated: Sat, 13 Dec 2025 06:48 PM (IST)

    श्रीनगर में आतंकवाद से पीड़ित बच्चों की दर्दनाक कहानी सामने आई है। इन बच्चों ने आतंकवाद के कारण अपने पिता को खो दिया, और उनकी मां ने भी उन्हें छोड़ दि ...और पढ़ें

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    यह कहानी आतंकवाद के कारण अनाथ हुए बच्चों के जीवन के संघर्ष को दर्शाती है।

    नवीन नवाज, श्रीनगर। दक्षिण कश्मीर में जिला अनंतनाग के मोंगहाल से आयी पाकीजा रियाज ने कहा कि मैं उस समय अपनी मां की गोद में ही खेलती थी, जब मेरे पिता रियासज अहमद मीर को आतंकियों ने यातनांए देकर बलिदान कर दिया।

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    वह मजदूरी करते थे। मेरे दादा-दादी और रिश्तेदार बताते हैं कि वह तीन मई 1999 को वह नयी उम्मीदों के साथ, रोजाना की तरह घर से गए थे, लेकिन जब लौटे तो लाश बनकर। उनकी हत्या से पूर्व उन्हें यातनाएं दी गई थी। मेरी मां ने घर की मजबूरियों और आर्थिक तंगहाली के कारण परिवार की मर्जी से दूसरी शादी कर ली और मुझे दादा-दादी की गोद में छोड़ दिया।

    उन्होंने जैसे तैसे मुझे पाला, उन्होंने मुझे दादा-दादी की तरह नहीं मां-बाप की तरह पाला। मैने कई बार अपनी दादा-दादी को अकेले बैठ रोते देखा है। घर में चूल्हा जलाना मुश्किल हो जाता था। जैसे जैसे में बड़ी होती गई, मुझे बचपन के जख्म पहले से ज्यादा टीस देने लगे थे। जब मैं छोटी थी तो मेरे दादा दादी कई बार मुझे अपने साथ लेकर सरकारी दफतरों मं गए, लेकिन किसी ने मदद नहीं की। आज 26 साल बाद हमारे घर एक नयी रोशनी पहुंची है।

    आतंकियों के खिलाफ लड़ने के बदले मिला उपेक्षा का अंधियारा

    लारनू ,अनंतनाग से आए मोहम्मद अशरफ लोन ने कहा कि मेरा भाई अब्दुल रहमान लोन जम्मू कश्मीर पुलिस में एसपीओ था। वह आतंकियों के खिलाफ अभियानों में सक्रिय भूमिका निभा रहा था। हमे कई बार आतंकियों व उनके समर्थकों ने धमकाया,लेकिन मेरा भाई कहता था कि हम अपने वतन के लिए खड़े हैं।

    उसे देखकर कुछ और लड़के भी आतंकियों के खिलाफ तैयार होरहे थे,इससे हताश आतंकियों का एक दल पांच मई 1999 को हमारे घर में जबरन दाखिल हो गया। मेरे भाई जो उस समय निहत्था था,आतंकियों के साथ लड़ा और बलिदान हो गया। उसके बलिदान से पूरे गांव में लोग दुखी थे,क्योंकि वह इंसाफ पसंद एक बहादुर नौजवान था।

    वह हमारे घर में अकेला कमाने वाला था,मैं उस समय बहुत छाेटाथा और पढ़ाइ्र कर रहा था।उसके बलिदानी होने के बाद किसी ने हमारी सुध नहीं ली, मां-बाप बूढ़े हो चुके थे और मुझे घर चलाने के लिए अपनी पढ़ाईछोड़नी पडी। वह डयूटी पर बलिदानी हुआ था ,बीते 26 साल से हम अपने लिए इंसाफ की उम्मीद लगाए बैठे थे।

    एलजी साहब ने सही बोला, यहां वतनपरस्तों को नहीं पूछा जाता था

    फिरोज अहमद सोफी ने कहा कि एलजी साहब ने सही कहा है कि यहां जो पहले सिस्टम था, वहां हम जैसों की काेई कद्र नहीं थी। हमें यूं भुला दिया गया था जैसे हम कभी थे ही नहीं। उसने कहा कि हमारा घर अनंतनाग के सुभानपोरा बिजबेहाड़ा में है। मेरा भाई इरशाद अहमद सोफी जम्मू कश्मीर पुलिस में एसपीओ था।

    उसने कई आतंकियों को मार गिराने में अहम भूमिका निभाई है। आप किसी भी पुराने पुलिस अफसर से या फिर हमारे इलाके के लोगों से पूूछ सकते हैं। आतंकी हमेशा उसके पीछ़े पड़े रहते थे। 26 सितंबर 1999 को आतंकियोंने हमारे घर पर हमला किया। इस हमले मेंं मै और मेराई भाई इरशाद घायल हो गए।

    हम दोनों को हमारे परिजनों ने पड़ोसियों की मदद से अस्पताल पहुंचाया ,जहां इरशाद भाई की मौत हो गई। वही घर में सबसे बड़ृा और कमाने वाला था। उसकी शादी भी हो चकी थी। उसकी मौत के बाद हम सभी अनाथ हो गए,उसकी बीबी ने दूसरी शादी कर ली। मां-बाप बीमार रहने लगे। एक बहन भी घर में ही थी।

    हम मदद के लिए किस किस के दरवाजे पर नहीं गए, लेकिन किसी ने हमें नौकरी नहीं दी। सभी हमारी उपेक्षा करते थे। आज यहां नौकरी मिली है। आपको नहीं बता सकता कि आज का दिन हमारे लिए कितना बड़ा दिन है,यह ईद है। यह मेरे भाई के बलिदान और उसकी बहादुरी को सलाम है।