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    36 साल बाद मूल स्थान पर लौटीं मां भद्रकाली

    By JagranEdited By:
    Updated: Wed, 21 Mar 2018 03:02 AM (IST)

    राज्य ब्यूरो, श्रीनगर : उत्तरी कश्मीर के टिक्कर-कुपवाड़ा में स्थित पौराणिक काल के भद्रकाली मंदिर में

    36 साल बाद मूल स्थान पर लौटीं मां भद्रकाली

    राज्य ब्यूरो, श्रीनगर : उत्तरी कश्मीर के टिक्कर-कुपवाड़ा में स्थित पौराणिक काल के भद्रकाली मंदिर में 36 साल बाद मां भद्रकाली की मूर्ति दोबारा प्रतिष्ठापित की गई है। रविवार को प्रथम नवरात्र पर यज्ञ और वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ सनातन परंपरा के अनुरूप मूर्ति को मूल स्थान पर प्रतिष्ठापित किया गया। यह मूर्ति जम्मू में थी।

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    मां भद्रकाली की मूर्ति वर्ष 1981 में रहस्यमय परिस्थितियों में मंदिर से चोरी हो गई थी। दो साल बाद इसे बरामद कर लिया गया। आतंकवाद के दौर में कश्मीरी पंडितों के पलायन के साथ ही मंदिर वीरान हो गया। कश्मीरी पंडितों ने मूर्ति को मंदिर से हटाते हुए पंडित जगन्नाथ के संरक्षण में उनके घर में रखवा दिया था। वर्ष 1999 में मूर्ति को जम्मू ले जाया गया। तब से यह वहीं पर थी।

    माता भद्रकाली स्थापना कमेटी के अध्यक्ष एडवोकेट भूषण लाल ने बताया कि यह स्थान और मूर्ति हमारे लिए बहुत अहम है। इस स्थान की हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों में बड़ी मान्यता है। मां भद्रकाली की मूर्ति किसने तैयार की। यह पता नहीं है, लेकिन कहा जाता है कि वर्ष 1891 में हंदवाड़ा निवासी सर्वा बयू को एक रात मां भद्रकाली ने सपने में दर्शन दिए। उन्हें श्रीनगर में डाउन टाउन के खनयार इलाके में स्थित एक धर्मस्थल पर जाकर खोदाई करने के लिए कहा गया। पंडित सर्वा बयू अपने पुत्र पंडित केशवजी बयू को लेकर खनयार पहुंचे। सपने में बताई गई जगह पर खोदाई की। उन्हें वहां मिट्टी के नीचे मां भद्रकाली की मूर्ति मिली। उन्होंने इस मूर्ति को भद्रकाल गांव में मां भद्रकाली के मंदिर में प्रतिष्ठापित किया। बाद में इस गांव को टिक्कर भी कहा जाने लगा।

    उन्होंने बताया कि अक्टूबर 2017 में ब्रिगेडियर डीआर राय के साथ उनकी मुलाकात हुई। वह कश्मीर में ही तैनात थे। मंदिर की अहमियत का जिक्र करते हुए उन्होंने मूर्ति को फिर से प्रतिष्ठापित करने में सहयोग का आग्रह किया था। सेना ने हमारी पूरी मदद की। मंदिर की सुरक्षा का जिम्मा सेना की 21 आरआर के पास ही है। रविवार को मां भद्रकाली एक बार फिर अपने मूल निवास पर लौट आईं। आतंकवाद का दौर शुरू होने से पहले हर साल चैत्र नवरात्र में यहां मेला लगता था। वर्ष 2004 में मंदिर में नवरात्र के दौरान हवन-पूजन परंपरा दोबारा शुरू की गई, जो लगातार जारी है।