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    कड़ाके की ठंड में पारंपरिक तरीकों से गर्मी की तलाश स्वास्थ्य पर भारी, जानिए कश्मीर की सर्दियों का एक खतरनाक पहलू

    By Raziya Noor Edited By: Rahul Sharma
    Updated: Fri, 05 Dec 2025 04:08 PM (IST)

    कश्मीर में ठंड से बचने के लिए पारंपरिक उपाय स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकते हैं। कांगड़ी और कोयले की भट्ठियों के इस्तेमाल से कार्बन मोनोऑक्साइड का ख ...और पढ़ें

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    डॉक्टरों ने सावधानी बरतने और कमरों को हवादार रखने की सलाह दी है।

    जागरण संवाददाता, श्रीनगर। कड़ाके की ठंड से बचने के लिए घाटी के लोगों की सब से बड़ी कोशिश रहती हैइस हाड़ कंपाने वाली ठंड से खुद को बचाना। इसके लिए स्थानीय लोग खुद को बचाने के लिए गर्मी का बंदोबस्त उनकी प्राथमिक्ता रहती है।

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    ऐसे में सर्दियां शुरू होते ही स्थानीय लोग गर्मी का बंदोबस्त करने में जुट जाते हैं। कांगड़ी,रिवायती चूल्हे,हमाम आदि के लिए चारकोल, कोइले तैयार करना है और यह प्रक्रिया पेड़ों की सूखी शाखों,झाड़ियों व सूखे पत्तों को रिवायती तौर पर जलाने से शुरू होती है। लेकिन पारंपरिक तरीकों से की जाने वाली यह प्रक्रिया कड़ाके की इस ठंड में उनको राहत तो दे देती है

    अलबत्ता इसके लिए उन्हें अपना स्वास्थय के रूप में एक भारी मुावजा चुकाना पड़ता है। कांगड़ी के लिए लकड़ी का कोयला बनाने के लिए हर साल काटी गई शाखाओं और पत्तियों को जलाने से कश्मीर के बड़े हिस्से में घना और घना धुआं छा गया है जिससे सांस लेने में तकलीफ़ बढ़ गई है।

    लोगों के फेफड़ों में बस रहा है घना धुआं

    घना धुआं आस-पड़ोस के इलाकों में नीचे की ओर मंडरा रहा है घरों में घुस रहा है और उन लोगों के फेफड़ों में बस रहा है जो पहले से ही सांस लेने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। बागवान जिसे सर्दियों की ज़रूरी दिनचर्या मानते हैं, वह एक प्रमुख मौसमी प्रदूषक बन गया है।

    जब तक... मैं जम्मू चला जाऊं

    शोपियां के सीओपीडी रोगी मोहम्मद अकबर गनई जैसे लोगों के लिए हर दिन सांस लेने की जंग बन गया है। उन्होंने कहा, जब भी धुआं मेरे घर में घुसता है, मेरी छाती में जकड़न महसूस होती है। पिछले कुछ हफ़्ते असहनीय रहे हैं।

    मैं सोच रहा हूं कि जब तक हवा ठीक न हो जाए, मैं जम्मू चला जाऊं। गनई अकेले नहीं हैं। जैसे-जैसे तापमान गिरता है, घाटी भर के अस्पतालों में सीओपीडी, अस्थमा और अन्य पुरानी सांस की समस्याओं के मरीज़ों की संख्या बढ़ती जा रही है। डाक्टरों का कहना है कि यह प्रवृत्ति अब कश्मीर की सर्दियों की हवा से जुड़ी हुई है।

    सीओपीडी और अस्थमा के मरीज़ों की संख्या काफ़ी ज़्यादा

    छाती रोगों के विशेषज्ञ डॉ. गुलाम हसन खान ने कहा कि इस क्षेत्र में सीओपीडी के मामले चिंताजनक दर से बढ़ रहे हैं। उन्होंने कहा, सर्दियों के दौरान, आपातकालीन भर्ती में सीओपीडी और अस्थमा के मरीज़ों की संख्या काफ़ी ज़्यादा होती है। धूम्रपान अभी भी सबसे बड़ा कारण है, लेकिन हम धूम्रपान न करने वालों में भी इस बीमारी के लक्षण तेज़ी से देख रहे हैं।

    डॉक्टर इस बदलाव का कारण बिगड़ती वायु गुणवत्ता को मानते हैं। बागों में बायोमास जलाना कांगड़ी में इस्तेमाल होने वाला कोयला, घरेलू धुआं और छोटे औद्योगिक समूहों से निकलने वाला उत्सर्जन मिलकर सर्दियों में जानलेवा साबित होते हैं। उन्होंने बताया, कई दिन ऐसे भी होते हैं जब कश्मीर का वायु गुणवत्ता सूचकांक कई बड़े महानगरों से भी बदतर होता है।

    सर्दियों के महीनों में खतरनाक स्तर पर पहुंच जाता है प्रदूषण

    भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान और कश्मीर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की एक टीम द्वारा संयुक्त रूप से किए गए 2018 के एक अध्ययन, जिसका शीर्षक था, विंटर बर्स्ट ऑफ प्रिस्टिन कश्मीर वैली एयर, से पता चलता है कि श्रीनगर में प्रदूषण सर्दियों के महीनों में खतरनाक स्तर पर पहुंच जाता है क्योंकि हवा में अनुमेय सीमा से पांच गुना अधिक सूक्ष्म कण पदार्थ ( पीएम 2.5) होते हैं।

    शोधकर्ताओं ने शरद ऋतु और सर्दियों के दौरान पीएम 2.5 और पीएम 10 का उच्च भार देखा, जिसमें भू-आकृतिक और वायुमंडलीय दबाव के कारण और भी बढ़ जाता है। डाक्टर चेतावनी देते हैं कि सीओपीडी अपरिवर्तनीय है और इसे केवल प्रबंधित किया जा सकता है। मरीजों को सलाह दी जाती है कि वे गर्म रहें, धुएं के संपर्क में आने से बचें, पानी पीते रहें और प्रकोप को रोकने के लिए नियमित रूप से साँस लेने के व्यायाम करें।

    खेतों से निकलने वाला कचरा भी बड़ा रहा परेशानी


    बागों के कचरे के निपटान की कोई वैकल्पिक व्यवस्था न होने के कारण, निवासियों और विशेषज्ञों, दोनों को डर है कि अगर कोई स्थायी समाधान नहीं अपनाया गया, तो हर सर्दी इसी तरह की समस्या लाती रहेगी।

    मुजगुंड श्रीनगर के किसान अब्दुल खालिक परे ने कहा, अगर सरकार ने कोई आपशन रखा होता, हम किसानों के खेतों व बाग बगीचों से निकलने वाले कचरे को ठिकाने लगाने का तो हमें यूं इस तरह इस कचरे को जलाना नही पड़ता। परे ने कहा, हम भी क्या करें। हमें यह करना पड़ता है। वरना हमें भी पता है कि इससे हमारे आसपास का माहौल आलूदा(दूषित) हो जाता है।