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    अंडरट्रायल कैदियों के ट्रांसफर पर महबूबा मुफ्ती की PIL खारिज, जम्मू-कश्मीर HC ने कहा- अस्पष्ट है याचिका

    Updated: Wed, 24 Dec 2025 01:54 AM (IST)

    जम्मू कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय ने महबूबा मुफ्ती की याचिका खारिज कर दी, जिसमें उन्होंने प्रदेश के बाहर की जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों को वापस ...और पढ़ें

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    जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की फाइल फोटो।

    राज्य ब्यूरो, जम्मू। जम्मू कश्मीर व लद्दाख उच्च न्यायालय ने पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की केंद्र शासित प्रदेश के बाहर की जेलों में बंद प्रदेश के विचाराधीन कैदियों को वापस प्रदेश की जेलों में स्थानांतरित करने की जनहित याचिका को मंगलवार को खारिज कर दिया।

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    अदालत ने कहा कि आवश्यक जानकारी और तथ्यों का अभाव वाली यह याचिका अस्पष्ट है। यह जनहित के बजाय राजनीतिक कारणों से प्रेरित लगती है।जनहित याचिका को “पक्षपातपूर्ण या राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाने के साधन के तौर पर इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं दी जा सकती और अदालत चुनावी प्रचार के लिए फोरम के तौर पर काम नहीं कर सकतीं। याचिकाकर्ता का मकसद खुद को न्याय का योद्धा दिखाना है।

    जम्मू कश्मीर व लद्दाख उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति अरुण पल्ली और न्यायमूर्ति राजेश ओसवाल की डीविजन बैंच ने अपने 15 पृष्ठ के फैसले में याचिका पर विचार करने से इंकार किया है। अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि प्रभावित लोगों का नाम लिए बिना, किसी विशेष आदेश को चुनौती दिए बिना या सत्यापित किए जाने वाले तथ्यों व घटनाओं को रिकार्ड में लाए बिना,, आम दावो के आधार पर किसी मुद्दे के लिए जनहित याचिका के असाधारण क्षेत्राधिकार का प्रयोग नहीं किया जा सकता।

    उल्लेखनीय है कि गत 26 अक्टूबर को पीडीपी प्रमुख ने जम्मू कश्मीर व लद्दाख उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर न्यायालय से आग्रह किया था कि वह भारत सरकार, जम्मू-कश्मीर प्रशासन, पुलिस महानिदेशक और महानिदेशक कारावास जम्मू कश्मीर को निर्देश दें कि जम्मू कश्मीर के जो भी विचाराधीन कैदी, प्रदेश के बाहर की जेलों में बंद हैं, तुरंत जम्मू कश्मीर की जेलों में स्थानांतरित किए जाएं।

    उन्होंने आग्रह किया था कि प्रदेश के बाहर उन्हीं कैदियों को भेजा जाए जो बहुत जरुरी हों और गंभीर अपराधों में लिप्त हों। इसके साथ ही उनके परिजनों के साथ नियमित मुलाकात की व्यवस्था व प्रदेश के बाहर की जेलों में बंद कैदियों से मुलाकात के लिए उनके परिजनों की आवासीय सुविधा व यात्रा भत्ते का बंदोबस्त करने, उनकी अपने वकील से नियमित मुलाकात, हर तीन महीने में अनुपालन रिपोर्ट के ज़रिए लीगल सर्विस अथॉरिटी द्वारा निगरानी, कस्टडी लाजिस्टिक्स से होने वाली देरी से बचने के लिए सबूत रिकार्ड करने की समय सीमा तय करने , सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारियों की एक शिकायत निवारण समिति गठित करने का भी मांग याचिका में की गई थी।

    न्यायालय ने तीन नवंबर 2025 को याचिका का संज्ञान लिया और उसके बाद 18 नवंबर को भी इस पर सुनवाई हुई और न्यायालय ने अपना फैसला आरक्षित रखा था। आज न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि यह याचिका जनहित याचिका के मानकों को पूरा नहीं करती है। याचिकाकर्ता ने सिर्फ यह बताया है कि बहुत से विचाराधीन कैदियों के परिजनों ने उससे संपर्क किया है, लेकिन याचिका में वह उनकी संख्या,पहचान ,उनके खिलाफ दायर मामलों की प्रकृति या उन्हें जम्मू कश्मीर के बाहर की जेलों में रखे जाने के कारण व संबधित आदेश के बारे में कोई जानकारी ने दे पाया है।

    न्यायालय ने अपने फैसले मं कहा कि जम्मू-कश्मीर के बाहर विचाराधीन कैदियों को रखना कोई आम व्यवस्था नही हैं बल्कि यह योग्य और समर्थ अधिकारियों द्वारा प्रत्येक मामले की प्रकृति और उससे सबधित तथ्यों के आधार पर लिया गया फैसला है। याचिका में ऐसे किसी आदेश को चुनौती दिए जाने का भी उल्लेख नहीं है।

    अदालत ने कहा कि जनहित याचिका का मकसद राजनीतिक लामबंदी या प्रचार का जरिया बनना नहीं बल्कि उन पिछड़े और कमजोर वर्गों के हितों का संरक्षण है जो खुद न्यायालय तक नहीं पहुंच सकते। याचिका के राजनीतिक उदृदेश्य की आलोचना करते हुए न्यायालय ने कहाकि याचिकाकर्ता जम्मू कश्मीर में एक बड़ी विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष है और इसलिए इस इस संभावना को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि याचिका का मकसद याचिकाकर्ता को एक क्षेत्र विशेष के लिए “न्याय के योद्धा” के तौर पर दिखाते हुए राजनीतिक लाभ उठाना है।

    जनहित याचिका को पार्टी या राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाने या कोर्ट को राजनीतिक मंच में बदलने के साधन के तौर पर इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। न्यायालय किसी चुनावी प्रचार या राजनीतिक फ़ायदे के लिए मंच के तौर पर काम नहीं कर सकते। डीविजन बेंच ने अपने फैसले में जम्मू कश्मीर के हिंसक अतीत और सुरक्षा परिदृश्य का उल्लेख करते कहा कि कुछ विचाराधीन कैदियों को केंद्र शासत प्रदेश से बाहर स्थानांतरित करना पड़ा है।

    याचिका कर्ता ने खुद भी माना है कि कुछ विशेष मामलों में विचाराधीन कैदियों को बाहर स्थानांतरित करना सही हो सकता है। उन्होंने बताया कि विचाराधीन कैदियों के पास अपने अधिकारों के लिए कई कानूनी उपाय हैं। जम्मू-कश्मीर के बाहर किसी जेल में हिरासत या ट्रांसफर से परेशान कोई भी विचाराधीन कैदी ऐसे आदेश की कानूनी मान्यता को चुनौती देने के लिए अकेले ही सही अदालत जा सकता है। लीगल सर्विसेज़ अथारिटीज़ एक्ट के तहत एक मज़बूत कानूनी सहायता तंत्र का होना, जिसकी निगरानी स्वयं सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टकरते हैं, ने याचिकाकर्ता के कैदियों की तरफ़ से पैरवी करने के दावे को और कमज़ोर कर दिया।

    कानूनी सहायता व्यवस्था या किसी और तरीके से अदालत में एक भी विचाराध्शीन कैदी का न आना इस बात का संकेत है कि प्रदेश से बाहर की जेलों में रखे गए लोग सच में परेशान नहीं थे, या फिर उन्होंने अपने लिए कानून का दरवाजा नहीं खटखटाया है। ऐसे हालात में, कोई राजनीतिक नेता एक बड़ी जनहित याचिका के जरिए अपने मुद्दे को उठाने का हक नहीं जता सकता।

    पीठ ने सर्वाग्रही निर्देश की मांग को अवैध बताते हुए कहा कि किसी कैदी के अधिकारों के बारे में पूरी तरह से निजि शिकायत” आम तौर पर जनहित याचिका का आधार और विषय नहीं हो सकती। क्योंकि याचिका कर्ता असल में, कही जा रही शिकायतों से अनजान तीसरा पक्ष है और वह सही जनहित साबित करने ेमें विफल रहे हैं, इसलिए याचिका खारिज की जाती है।