जम्मू-कश्मीर की सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने के लिए अकादमी की पहल, गुरु-शिष्य परंपरा योजना की शुरुआत
जम्मू-कश्मीर कला, संस्कृति और भाषा अकादमी ने राज्य की सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के लिए गुरु-शिष्य परंपरा योजना की शुरुआत की है। इस योजना का उ ...और पढ़ें

यह पहल जम्मू और कश्मीर की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
जागरण संवाददाता, जम्मू। जम्मू-कश्मीर की समृद्ध और बहुरंगी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने की दिशा में जम्मू-कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी ने एक महत्वपूर्ण पहल करते हुए गुरु-शिष्य परंपरा योजना की शुरुआत की है।
इस योजना का उद्देश्य प्रदेश की उन दुर्लभ और लुप्तप्राय लोक एवं पारंपरिक कला विधाओं को संरक्षित, पुनर्जीवित और अगली पीढ़ी तक हस्तांतरित करना है, जो समय और आधुनिकता की मार से धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही हैं।
यह योजना भारत की प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा पर आधारित है। जिसमें अनुभवी और सिद्धहस्त कलाकार अपने ज्ञान, कौशल और अनुभव को व्यवस्थित प्रशिक्षण के माध्यम से युवा शिष्यों तक पहुंचाते हैं। इसके तहत चयनित प्रत्येक गुरु को पांच से आठ शिष्यों को एक विशेष कला विधा में प्रशिक्षण देना होगा, ताकि कला की मौलिकता और शुद्धता बनी रहे।
मासिक मानदेय की भी व्यवस्था
प्रशिक्षण प्रक्रिया को निरंतर और प्रभावी बनाने के लिए योजना के तहत मासिक मानदेय की भी व्यवस्था की गई है। गुरु को हर महीने 10,000 रूपए, संगतकार या सहायक को 7,500 रूपए तथा प्रत्येक शिष्य को 5,000 रूपए दिए जाएंगे।प्रशिक्षण की अवधि एक वर्ष निर्धारित की गई है। जिसे प्रगति और प्रदर्शन की समीक्षा के आधार पर एक और वर्ष के लिए बढ़ाया जा सकता है।
इस योजना से कला जगत से जुड़ लोग काफी उत्साहित हैं। उनका कहना है कि इस तरह की योजना काफी पहले से होनी चाहिए थी। आज लोक कला का कई तरह कीी चुनौतियों का सामना करना पड़ा रहा है। लेकिन इस तरह के प्रयास से जरूर लाभ होगा।
कुल 200 आवेदन प्राप्त हुए
जम्मू-कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी की सचिव हरविंद्र कौर ने बताया कि कुल 200 आवेदन प्राप्त हुए। जिनमें कश्मीर से 63 और जम्मू से 137 आवेदन शामिल हैं। विशेषज्ञों की समिति ने गहन जांच और मूल्यांकन के बाद तीन ऐसी लोक कला विधाओं की पहचान की है, जो विलुप्त होने के कगार पर हैं। इन्हीं विधाओं के संरक्षण और पुनरुद्धार के लिए प्रख्यात कलाकारों को गुरु के रूप में चयनित किया गया।
पाड्डर, किश्तवाड़ की घुरिया लोक नृत्य के लिए सलोचना देवी, बनी क्षेत्र की मस्सादेय लोक परंपरा के लिए देव राज तथा कश्मीर की दास्तान लोक परंपरा ;दास्तान-ए-गोई के लिए अब्दुल राशिद मीर को गुरु के रूप में चुना गया है। ये अनुभवी कलाकार अब युवा पीढ़ी को संरचित प्रशिक्षण देकर इन लोक कलाओं की प्रामाणिकता और निरंतरता सुनिश्चित करेंगे।
पलायन और आधुनिक प्रभावों के कारण संकट
मस्सादेय डोगरी लोक कला की एक जीवंत परंपरा है, जो कथा-वाचन, संगीत और नृत्य के माध्यम से स्थानीय किंवदंतियों, लोककथाओं और सामाजिक संदेशों को प्रस्तुत करती है। दास्तान-ए-गोई एक शास्त्रीय मौखिक कथा परंपरा है। जिसकी जड़ें फारसी साहित्य में हैं और जो मुगल काल में भारतीय उपमहाद्वीप में फली-फूली। इसकी पहचान विस्तृत कथानक और नाटकीय प्रस्तुति है।
वहीं घुरिया पाड्डर क्षेत्र का महिला-प्रधान लोक नृत्य है। जिसमें बांसुरी, ढौंस और सवाल-जवाब शैली के गीत शामिल होते हैं। यह नृत्य सामुदायिक जीवन का उत्सव है और पाड्डरी बोली के संरक्षण का भी माध्यम है, जो आज पलायन और आधुनिक प्रभावों के कारण संकट में है।
सांस्कृतिक पहचान को सशक्त बनाएं
वरिष्ठ नाट्य निर्देशक, साहित्यकार पद्मश्री मोहन सिंह ने कहा कि गुरु-शिष्य परंपरा योजना के माध्यम से अकादमी ने न केवल जम्मू-कश्मीर की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया है कि ये दुर्लभ और मूल्यवान लोक कलाएं आने वाली पीढ़ियों तक जीवित रहें और सांस्कृतिक पहचान को सशक्त बनाएं।
अभी इस दिशा में बहुत ज्यादा काम करने की जरूरत है। बहुत सी ओर भी लोक नृत्य, संगीत शैलियां लुप्तप्राय हैं। उन पर भी काम करने की जरूरत है। स्कूलों कालेजों में नियमित कार्यशालाएं भी आयोजित की जानी चाहिए।

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।