Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck

    जम्मू-कश्मीर: पहचान खोते जा रहे परंपरागत अखाड़े, संस्कृति व सम्मान की हिस्सा रही कुश्ती अब हो गई है पैसे का खेल

    By Lalit Kumar Edited By: Rahul Sharma
    Updated: Fri, 24 Oct 2025 06:42 PM (IST)

    जम्मू-कश्मीर में परंपरागत अखाड़े अपनी पहचान खो रहे हैं। कभी ये अखाड़े संस्कृति और सम्मान का प्रतीक हुआ करते थे, लेकिन अब कुश्ती पैसे का खेल बन गई है। इससे अखाड़ों का महत्व घटता जा रहा है और परंपरागत मूल्यों का ह्रास हो रहा है।

    Hero Image

    ईमानदार खेल भावना के बजाय कई जगह स्पांसर होने लगा है यह खेल।

    दलजीत सिंह, जागरण, आरएसपुरा। आज के समय में क्रिकेट और अन्य खेल युवाओं की प्राथमिकता बन गए हैं, जबकि देसी कुश्ती, जो कभी गांव की शान मानी जाती थी, अब अपनी पहचान खोती जा रही है। यह कुश्ती, जो पहले मेहनत, साहस और खेल भावना का प्रतीक थी, अब पैसों और पुरस्कारों के लालच में फंस चुकी है।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    पहले कुश्ती केवल ताकत दिखाने का माध्यम नहीं थी, बल्कि यह गांव की संस्कृति और मान-सम्मान का अभिन्न हिस्सा थी। उस समय जीतने वाले पहलवान को गुड़ और बर्तन जैसे पारंपरिक इनाम दिए जाते थे, जबकि असली इनाम था लोगों का सम्मान और तालियां। हारने वाले को भी सराहा जाता था, लेकिन अब ग्रामीण खेल भी पैसों के जाल में उलझते जा रहे हैं।

    स्थानीय बुजुर्ग बंसी लाल का कहना है कि पहले अखाड़े की मिट्टी में ईमानदारी और भाईचारा समाहित होता था। मुकाबले हार-जीत से अधिक मर्यादा के लिए होते थे। गांव के युवा अखाड़े में अभ्यास करते थे, बड़े बुजुर्ग उन्हें प्रेरित करते थे और पूरा गांव इन मुकाबलों का साक्षी बनता था। लेकिन अब समय बदल गया है।

    आज कुश्ती का मैदान स्पांसरशिप, पुरस्कार राशि और शोहरत के लिए तैयार किया जाता है। पहलवान अब एक-दूसरे से ईमानदारी से भिड़ने के बजाय पहले से तय मुकाबले खेलने लगे हैं। दर्शक अब मनोरंजन की उम्मीद लेकर आते हैं, न कि असली खेल भावना देखने।

    कुश्ती को पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता

    वरिष्ठ पहलवान नगर मल ने अफसोस जताते हुए कहा कि पहले पहलवान मिट्टी के लिए लड़ते थे, अब पैसे के लिए। पहले अखाड़े में दांव लगते थे, अब सौदे होते हैं। इस खेल में रुचि रखने वाले लोगों का मानना है कि कुश्ती की यह स्थिति चिंताजनक है। यदि यही स्थिति बनी रही, तो आने वाले समय में यह देसी खेल केवल कमाई और दिखावे का माध्यम बनकर रह जाएगा।

    बुजुर्ग पहलवानों और ग्रामीण खेल प्रेमियों ने प्रशासन और आयोजकों से अपील की है कि इस खेल में ईमानदारी, अनुशासन और पारंपरिक भावना को पुनर्स्थापित किया जाए, ताकि नई पीढ़ी समझ सके कि खेल का असली अर्थ जीतना नहीं, बल्कि सही तरीके से खेलना है।

    आज भी कई गांवों में पुराने अखाड़े खामोश हैं, लेकिन उनकी मिट्टी अब भी उन दिनों की गवाही देती है जब कुश्ती केवल मुकाबला नहीं, बल्कि गौरव और संस्कृति का प्रतीक हुआ करती थी।