J&K : मौत की नदी श्योक पर बना सेना की हिम्मत का पुल, एलएसी पर दुश्मन को चुनौती देने के लिए सेतु से गुजर सकेंगे टी 90 जैसे टैंक
लद्दाख के दुर्गम हालात में सीमा सड़क संगठन ने रिकॉर्ड 15 महीने में बनाया ।
जम्मू, विवेक सिंह । मौत की नदी कही जाने वाली लद्दाख की श्योक नदी पर बना कर्नल छिवांग रिनचिन सेतु लद्दाख के वीरों और भारतीय सेना की हिम्मत का प्रतीक होगा। इस सेतु से गुजर कर वास्तविक नियंत्रण रेखा तक पहुंचने वाले टी-90 जैसे भारी भरकम टैंक जरूरत पड़ने पर दुश्मन को चुनौती देंगे।
लद्दाख के दुर्गम हालात में सीमा सड़क संगठन ने रिकॉर्ड 15 महीने में बनाया
यह सेतु पूर्वी लद्दाख के दुर्गम हालात में सीमा सड़क संगठन ने रिकॉर्ड 15 महीने में बनाया है। यारकंदी भाषा में श्योक नदी के मायने मौत की नदी हैं। भूतकाल में मध्य एशिया से इस रूट से आने वाले काफी व्यापारी दुर्गम हालात के कारण रास्ते में ही मर जाते थे। इसलिए सियाचिन ग्लेशियर के एक हिस्से से निकलने वाली श्योक नदी को मौत की नदी भी कहा जाता था। अब सेना ने इस नदी को जीवन की नदी बना दिया है। यह सेतु बनने से सेना के साथ लोगों को भी फायदा होगा।
लद्दाख के शेर एवं दो बार महावीर चक्र विजेता कर्नल छिवांग रिनचिन को समर्पित 14,650 फीट की ऊंचाई पर 1400 फीट लंबा यह सेतु लेह के दुरबक इलाके को वायुसेना के एडवांस लैंडिंग ग्राउंड दौलत बेग ओल्डी (डीबीओ) से जोड़ता है। यह सेतु क्षेत्र में 255 किलोमीटर लंबी सड़क पर है। लेह में विश्व की सबसे ऊंची हवाई पट्टी दौलत बेग ओल्डी लेह में पिछले कुछ वर्षों में तैयार की गई वायुसेना के तीन एडवांस लैंडिंग ग्राउंड में से एक है। इनके बनने से क्षेत्र में सेना की ताकत कई गुना बढ़ गई है। अब चंडीगढ़ से करीब 30 मिनट में भारी भरकम टैंक, सैन्य वाहन, मिसाइलें व गोला-बारूद लेह पहुंच सकता है।
एलएसी पहुंचने में अब आधा घंटा कम लगेगा
यह सेतु बनने से वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) तक पहुंचने का सफर आधा घंटा कम हो जाएगा। यही नहीं, इससे सेना की भारी भरकम तोपें, टैंक व अन्य साजोसामान को वास्तविक नियंत्रण रेखा तक पहुंचाना आसान हो जाएगा। वायुसेना के बेड़े में शामिल सबसे बड़े विमान सी-17 ग्लोब मास्टर समेत सभी विमानों से चंद मिनटों में सेना का भरकम साजो सामान डीअीबो में पहुंचाना संभव है। यह सेतु सैन्य की आवाजाही को सरल बनाने के साथ लेह के दूरदराज इलाकों के विकास में सहायक बनेगा।
सेतु की ये हैं खूबियां :
- 70 टन तक भार सहने की है क्षमता
- 4.3 मीटर चौड़ा और 1400 फीट लंबा है सेतु
- सेना के 70 टन भार के वाहन गुजर सकते हैं सेतु से
- सेना के 48 टन के 3.5 मीटर चौड़े टी-90 टैंक से भी बड़े मारक हथियार गुजर सकेंगे
- सेना के वाहन कुछ ही मिनट में पहुंच जाएंगे एलएसी
- वास्तविक नियंत्रण रेखा से महज 45 किलोमीटर की दूर है सेतु
- चीन का जिनजियांग प्रांत पड़ता है क्षेत्र में
जिस इलाके में यह सेतु बनाया गया है, उस क्षेत्र में इस क्षेत्र में नदियों और नालों पर ऐसे 37 अन्य पुल हैं। इस क्षेत्र के पास चीन का जिनजियांग प्रांत पड़ता है। चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा के पास सेना के बुनियादी ढांचे को बहुत मजबूत कर दिया था। ऐसे में सेना की ऑपरेशन तैयारियों को धार देने के लिए पूर्वी लद्दाख में भारतीय सेना ने भी खुद को मजबूत किया है। सामरिक दृष्टि से नया पुल बहुत अहमियत रखता है।
जवानों का खून पसीना भी लगा पुल में
हिमस्खलन से प्रभावित रहने वाले सियाचिन में सर्दियों में मौसम शून्य से 60 डिग्री नीचे तक चला जाता है। सेतु का उद्घाटन करते हुए रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि लद्दाख के दुर्गम हालात में सड़कें, पुल बनाने में सिर्फ स्टील व कंक्रीट ही नहीं, सीमा सड़क संगठन के इंजीनियरों का खून, पसीना भी लगता है। इन लोगों ने अपनी मेहनत की कई शौर्य गाथाएं लिखी हैं। इस मौके पर राजनाथ सिंह के साथ कर्नल रिनचिन की बेटी डॉ. आंगमों व लद्दाख के सांसद भी मौजूद थे। सियाचिन में सेना वर्ष 1984 से डेरा डाले हुए हैं। पिछले दस सालों के दौरान सेना ने सियाचिन में अपने 163 बहादुर खोए हैं।
सेना के लिए बड़ी अहमियत रखता है लद्दाख
केंद्र शासित प्रदेश बनने जा रहा लद्दाख भारतीय सेना के लिए बड़ी अहमियत रखता है। सेना ने वर्ष 1948 से लेकर 1999 की कारगिल युद्ध तक सामरिक दृष्टि से अहम इस क्षेत्र में बहुत कुर्बानियां दी हैं। सियाचिन के पश्चिम में साल्टोरो रिज के पार पाकिस्तान के कब्जे वाले गिलगित बाल्टिस्तान हैं। वहीं, इसके पूर्व में चीन के कब्जे वाला अक्साई चिन इलाका है। पाकिस्तान यहां पर सियाचिन पर कब्जे की कोशिशें कर चुका है। दूसरी ओर चीन की सेना अक्सर लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर घुसपैठ कर विवाद पैदा करती रहती है।
17 साल में पहला महावीर चक्र जीतकर बन गए थे लद्दाख के शेर
लद्दाख के शेर के नाम से मशहूर कर्नल छिवांग रिनचिन ने दो बार महावीर चक्र जीतकर बहादुरी की नई इबारत लिख दी। वर्ष 1948 में कारगिल पर कब्जा करने की पाकिस्तान की साजिश को नाकाम बनाते हुए 17 वर्षीय सैनिक रिनचिन ने पहला महावीर चक्र जीता था। उन्होंने नोबरा गार्ड के गठन के साथ लद्दाखी सैनिकों में देशसेवा की मशाल भी जलाई। चार साल बाद 1952 में नोबरा गार्ड का विलय जम्मू कश्मीर मिलिशिया के साथ कर दिया गया। वर्ष 1948 में लद्दाख को बचाने के लिए कर्नल पृथ्वी सिंह ने क्षेत्र के लोगों से सहयोग मांगा तो सबसे पहले सामने आने वालों में सत्रह वर्षीय छात्र छिवांग रिनचिन थे। लद्दाख के तुरतुक में हुई लड़ाई में असाधारण बहादुरी के लिए रिनचिन को पहला महावीर चक्र मिला। उन्होंने 28 युवाओं को संगठित कर दुश्मन से लोहा लिया था। उनकी बहाुदरी देखते हुए उन्हें सेना में जीसीओ बना दिया गया। सेना में कर्नल के रैंक तक पहुंचने वाले लद्दाख के इस पहले सैनिक ने वर्ष 1962 में भारत-चीन के युद्ध में बहाुदरी के लिए सेना मेडल व भारत के 1971 के भारत पाकिस्तान के युद्ध में दूसरी बार महावीर चक्र जीत कर लद्दाखी सैनिकों को एक नई पहचान दी। सोमवार को पूर्वी लद्दाख में उन्हें समर्पित पुल उनकी बहाुदरी को हमेशा जिंदा रखेगा।