Death Anniversary of Sheikh Abdullah : कश्मीर के भारत विलय के समर्थक बन पीछे से पाकिस्तान-चीन से मिलाते रहे हाथ
Death Anniversary of Sheikh Abdullah नई दिल्ली द्वारा गिरफ्तार किए जाने पर शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को कश्मीर में राजनीतिक रूप से फायदा ही हुआ। उनके विश्वस्त मिर्जा अफजल बेग ने 1955 में प्लेबिसाइट फ्रट जिसे महाज ए रायशुमारी कहते हैं गठित किया।

श्रीनगर, नवीन नवाज : विलय, रायशुमारी और आटोनामी- जम्मू कश्मीर की राजनीति बीते 75 साल के दौरान इन्हीं मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। इन्होंने ही प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से अलगाववाद को भी जन्म दिया है। इन सभी के केंद्र बिंदु में अगर कोई राजनीतिक शख्सियत नजर आती है तो वह नेशनल कांफ्रेंस के संस्थापक स्वर्गीय शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ही हैं।
आठ दिसंबर 1905 को श्रीनगर के सौरा इलाके में जन्मे शेख मोहम्मद अब्दुल्ला का कश्मीर की राजनीति में प्रवेश धर्म की सियासत के आधार पर ही हुआ और वर्ष 1930 के दौरान कश्मीर की सियासत में सक्रिय हुए शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने डाउन-टाउन में स्थित एतिहासिक जामिया मस्जिद का भी शुरू में सहारा लिया। उन्होंने तत्कालीन महाराजा हरि सिंह की सत्ता का चुनौती देते हुए मुस्लिम कांफ्रेंस का गठन किया था। जब उन्हें लगा कि डोगरा शासन को उखाड़ फेंकने के लिए अन्य वर्गाें का समर्थन चाहिए तो उन्होंने खुद को पंथ निरपेक्ष साबित करने के लिए मुस्लिम कांफ्रेंस को नेशनल कांफ्रेंस में बदला। इस पर उनके कई सहयोगियों ने विरोध जताया और उन्होंने मुस्लिम कांफ्रेंस के बैनर तले ही अपनी सियासत जारी रखी।
स्वतंत्रता के बाद भी एक और भारत विलय के समर्थक की छवि बनाने का प्रयास करते रहे और सत्ता में भी पहुंचे और पीछे से पाकिस्तान और चीन से पींगे बढ़ाने के आरोप भी उन पर लगे। अपनी इसी सियासत के कारण शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में अपनी लोकप्रियता गंवाना शुरू कर दी। जमात-ए-इस्लामी व अलगाववादी तत्व मजबूत होने लगे। ऐसे में अपने जनाधार को मजबूत बनाने और अपने विरोधियों को नाकाम बनाने के लिए जम्मू कश्मीर में अलगाववादियों के एजेंडे के करीब दिखे। साथ ही और अधिक स्वायतता और 1953 से पूर्व की संवैधानिक स्थिति की बहाली का नारा देना शुरू कर दिया।
नेशनल कांफ्रेंस के गठन में उन्हें साम्यवादी सोच के जम्मू कश्मीर, पंजाब, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के कई तत्कालीन नेताओं और बुद्धिजीवियों का भी समर्थन मिला। इनमें पंडित जवाहर लाल नेहरू भी शामिल हैं। नेहरू और शेख अब्दुल्ला की दोस्ती काफी गहरी रही है। नेहरू के सहयोग से ही उन्होंने महाराजा के खिलाफ क्विट कश्मीर की मूवमेंट भी चलाई। वह खुद को आम कश्मीरी अवाम का मसीहा साबित करने में लगे रहे। उन्होंने जिस तरह से महाराजा के खिलाफ विशुद्ध मुस्लिम भावनाओं को भड़का कर सियासत की, उसने ही उन्हें कश्मीर का एक निर्विवाद नेता भी बनाया।
1947 में जब पाकिस्तानी सेना के सहयोग से कबाइलियों ने जम्मू कश्मीर को हथियाने के लिए हमला किया था ताे उस समय भारत के कश्मीर विलय में शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई। इससे वह पूरे भारत में एक हीरो के रूप में अपनी छवि बनाने में कामयाब रहे। इसी के बूते उन्होंने विलय के बाद जिस तरह से जम्मू कश्मीर में एक नई राजनीतिक और संवैधानिक व्यवस्था को लागू कराया, उससे उनके असली मंसूबे बेनकाब हो गए। उन्होंने समाजवाद, लोकतंत्र और पंथ निरपेक्षता का जो लबादा ओढ़ रखा था, वह उतर गया। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के साथ मिलकर और भारत-पाक विभाजन के बाद उपजे हालात और जम्मू कश्मीर की बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी के नाम पर जम्मू कश्मीर के लिए एक अलग संविधान और निशान की व्यवस्था सुनिश्चित कराई।
एक वर्ग विशेष के लिए लैंड इस्टेट एक्ट लागू करवाया : उन्होंने 1950 में बिग लैंड इस्टेट एक्ट लागू कराया, उसने सिर्फ एक वर्ग विशेष और क्षेत्र को प्रभावित किया। हालांकि इस कानून से कई भूमिहीन किसान जमीनों के मालिक बने, लेकिन इस सच्चाई को नहीं नकारा जा सकता इससे जम्मू प्रांत के जमींदार ही ज्यादातर प्रभावित हुए या फिर कश्मीर में बसे कश्मीरी हिंदू या अन्य अल्पसंख्यक। बागों को इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया था। शेख अब्दुल्ला तत्कालीन राजनीतिक हालात और कश्मीर में अपनी कथित लोकप्रियता से प्रभावित होकर कश्मीर में अपनी एक सल्तनत कायम करने का सपना देखने लगे थे। उन्होंने अपनी बैठकों में विलय के फैसले को भूल बताना शुरु कर दिया।
कश्मीर में पैर जमाने के लिए विलय के फैसले को गलत बताया : 25 जुलाई 1953 को उन्होंने खुद अपने सहयोगियों के साथ बैठक में कहा था कि विलय का फैसला गलत है। इससे पूर्व 13 जुलाई 1953 को उन्हाेंने कश्मीर में अपनी विभिन्न रैलियों में विलय पर सवाल उठाते हुए कहा था कि मैं अब दिल्ली पर यकीन नहीं रखता। अब हमारा और दिल्ली का रास्ता अलग है। इसके बाद वादी में हालात तेजी से बदले। वह अपनी रैलियों में लाेगों को हरा रूमाल और पाकिस्तानी नमक दिखाते। दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के लिए भी कश्मीर के हालात के कारण स्थिति काफी विकट होती जा रही थी। खुफिया एजेंसियां भी कश्मीर के हालात और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के मंसूबों पर नकारात्मक रिपोर्ट जारी कर रही थी। स्थिति को भांपते हुए केंद्र सरकार ने नौ अगस्त 1953 को गिरफ्तार कर लिया।
गिरफ्तार होने पर भी राजनीतिक लाभ मिला : नई दिल्ली द्वारा गिरफ्तार किए जाने पर शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को कश्मीर में राजनीतिक रूप से फायदा ही हुआ। उनके विश्वस्त मिर्जा अफजल बेग ने 1955 में प्लेबिसाइट फ्रट जिसे महाज ए रायशुमारी कहते हैं, गठित किया। इसके साथ उन्होंने कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग शुरू कर दी। इसमें पाकिस्तान का भी कथित तौर पर सहयोग रहा। करीब एक दशक बाद शेख अब्दुल्ला को रिहा किया गया और उसके कुछ समय बाद शेख अब्दुल्ला अपनी पत्नी और मिजा अफजल बेग के साथ हज के लिए सऊदी अरब भी गए और वहां से वह मिस्र और अल्जीरिया भी गए। अल्जीरिया में उन्होंने चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति से भी मुलाकात की। उस समय भारत-चीन के बीच संबंध तनावपूर्ण चल रहे थे। इसी मुलाकात के आधार पर शेख अब्दुल्ला और उनके पुत्र डा फारूक अब्दुल्ला कहते रहे हैं कि चीन ने कश्मीर को भारत से आजाद कराने के लिए हथियारबंद आंदोलन में सहयोग की पेशकश की थी, जिसे शेख अब्दुल्ला ने नकार दिया था।
चीन राष्ट्रपति से मुलाकात ने कई शंकाओं को जन्म दिया : चीन के राष्ट्रपति के साथ शेख अब्दुल्ला की मुलाकात ने कई शंकाओं काे जन्म दिया। इस मुलाकात के लिए भारत सरकार से उन्होंने कोई अनुमति नहीं ली थी और जब वह विदेश दौरे से लौटे तो उन्हें व मिर्जा अफजल बेग को दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पर गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद 1975 में इंदिरा गांधी के साथ हुए समझौते बाद उन्होंने जम्मू कश्मीर की सत्ता में वापसी की और जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बने। इस बीच, जम्मू कश्मीर में हुए संसदीय और विधानसभा चुनावों का उनकी पार्टी ने बहिष्कार किया। एक तरह से कश्मीर में जो चुनाव बहिष्कार की राजनीति है, वह शेख अब्दुल्ला और उनकी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस की देन मानी जाती है।
इंदिरा गांधी से समझौते की खबर के बाद कश्मीर में हड़ताल : शेख अब्दुल्ला और इंदिरा गांधी के बीच जब समझौते की खबर फैली तो पूरे कश्मीर में हड़ताल हो गई थी,लेकिन शेख अब्दुल्ला जब वह कश्मीर पहुंचे तो हजारों की तादाद मे लोग उनके स्वागत के लिए खड़े थे। शेख अब्दुल्ला ने सत्ता में लौटने के बाद सबसे पहले कांग्रेस को कश्मीर की सियासत से बेदखल करने के लिए कई पुराने कांग्रेसियाें को कश्मीरियत और मजहब का हवाला देकर, प्रलोभन देकर नेशनल कांफ्रेंस का हिस्सा बनाया। उन्होंने कश्मीर मे लोकतंत्र को आघात पहुंचाते हुए विधानसभा का कार्यकाल पांच से छह साल किया।
खोई लोकप्रियता : आठ सितंबर 1982 को जब उनका निधन हुआ तो पूरे कश्मीर में शोक की लहर दौड़ गई। पूरा कश्मीर बंद हो गया। उनके जनाजे में उमड़ी भीड़ को आज भी कश्मीर में किसी भी रैली की सबसे ज्यादा भीड़ माना जाता है।इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि जिस शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का निर्विवाद नेता माना जाता रहा है, कश्मीर में आतंकी हिंसा शुरू होने पर उसके ही मजार पर पुलिस का पहरा लगाना पड़ा। अलगाववादी तत्वों द्वारा उनकी कब्र को खोदे जाने की आशंका पैदा हो गई।
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