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Militancy In Kashmir : यासीन मलिक के बाद अब बिट्टा कराटे और मसर्रत आलम जैसे गुनाहगारों की बारी

Yasin Malik Case एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी ने कहा कि पहले मलिक समेत कई आतंकी कमांडरों और अलगाववादी नेताओं के खिलाफ मामलों की जांच सिर्फ एफआइआर तक सीमित रहती थी। इनके खिलाफ कई बार सुबूत और गवाह जुटाना मुश्किल हो जाता था।

By Rahul SharmaEdited By: Published: Thu, 26 May 2022 08:53 AM (IST)Updated: Thu, 26 May 2022 10:47 AM (IST)
Militancy In Kashmir : यासीन मलिक के बाद अब बिट्टा कराटे और मसर्रत आलम जैसे गुनाहगारों की बारी
पहले मलिक समेत कई आतंकी कमांडरों और अलगाववादी नेताओं के खिलाफ मामलों की जांच सिर्फ एफआइआर तक सीमित रहती थी।

श्रीनगर, राज्य ब्यूरो : आतंकी यासीन मलिक को उम्रकैद की सजा के बाद अब अन्य आतंकी कमांडरों और अलगाववादियों के गुनाहों का हिसाब जल्द होने की उम्मीद मजबूत हुई है। फारूक अहमद डार उर्फ बिट्टा कराटे, हैदर उल इस्लाम, नईम खान, शब्बीर अहमद शाह, आसिया अंद्राबी, अल्ताफ शाह, मसर्रत आलम, पीर सैफुल्ला, शकील बख्शी जैसे आतंकियों और अलगाववादियों के खिलाफ कत्ल, आगजनी, कानून व्यवस्था को भंग करने, हवाला, राष्ट्रद्रोह जैसे दर्जनों मामले विभिन्न अदालतों में विचाराधीन हैं। कई मामलों में सिर्फ एफआइआर दर्ज है, लेकिन आगे कोई कार्रवाई नहीं हुई है।

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यासीन मलिक जिसे बुधवार को दिल्ली में अदालत ने सजा सुनाई है, उसके खिलाफ भी अभी प्रदेश की विभिन्न अदालतों में कई मामले लंबित हैं। इनमें वायुसेना की अधिकारियों की हत्या, निर्दाेष कश्मीरी हिंदुओंकी हत्या, तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री स्व. मुफ्ती मोहम्मद सईद की पुत्री रूबिया सईद के अपहरण और हवाला के मामले भी हैं।

इन हमलों में उसके साथ अन्य कई आतंकी कमांडर और अलगाववादी नेता भी आरोपित हैं। मीरवाइज मौलवी उमर फारूक समेत जो कुछ गिने चुने अलगाववादी नेता इस समय जेल जाने से बचे हुए हैं, उनके खिलाफ भी विभिन्न मामले बरसों से लंबित पड़े हुए हैं। खुद को बचाने के लिए कई मामलों की सुनवाई पर रोक के लिए आतंकी कमांडरों और अलगाववादी नेताओं ने अदालत से स्टे आर्डर भी प्राप्त किए हैं। इनमें वायुसेना के अधिकारियों पर हमले का मामला भी शामिल रहा है।

एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी ने कहा कि पहले मलिक समेत कई आतंकी कमांडरों और अलगाववादी नेताओं के खिलाफ मामलों की जांच सिर्फ एफआइआर तक सीमित रहती थी। इनके खिलाफ कई बार सुबूत और गवाह जुटाना मुश्किल हो जाता था। कोई दूसरा विकल्प न देखकर इन्हें जन सुरक्षा अधिनियम के तहत बंदी बना लिया जाता रहा है और अंतत: अदालत में याचिका दायर कर छूट जाते थे। यह अधिकांश मामलों में हुआ है। 


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