वाम ज्वाला से खाक परिसर
विश्वविद्यालय को संवारने की तमाम कोशिशें अपनी जगह लेकिन छात्रों से लेकर शिक्षकों तक का राजनीतिक हो जाना इसकी छवि को तो खराब कर ही रहा है, शैक्षणिक माह ...और पढ़ें

डॉ. रचना गुप्ता
शिमला के हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में राष्ट्रपति से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सरीखे माननीयों को बुलाकर सर ऊंचा करने का प्रयास तो किया था मगर अंदर ही अंदर सुलग रही छात्र ज्वाला ने 'नैकÓ यानी यूजीसी की स्वायत्त संस्था राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन समिति के दौरे के दौरान सब खाक कर दिया। यूजीसी का यह प्रतिनिधि मंडल ही तय करता है कि किसी विश्वविद्यालय का विभिन्न पैमानों में क्या स्थान मिलेगा।
दरअसल हिमाचल विश्वविद्यालय की यह पीड़ा सिर्फ और सिर्फ राजनीति से ओतप्रोत है। छात्र नेताओं को अपने स्थापत्य के लिए, प्रबंधन में जुड़े विभिन्न शिक्षक राजनीति से संबद्ध होने और वहीं शिक्षकों व गैर शिक्षकों के बीच विभिन्न राजनीतिक विचारधाराएं हैं जो यहां के संपूर्ण शैक्षणिक माहौल को प्रभावित कर रहीं हैं। कुल मिलाकर विश्वविद्यालय में अहं का टकराव हो गया है और चुनावी बरस में युवाओं को चुनावी रंग से सराबोर करने की कवायद हर स्तर पर हो रही है। लेकिन पहाड़ी राज्य की ठंडी फिजाओं में खुखरी, डंडे, तलवारों का नंगा नाच आम बात हो गई है। जहां का तनावपूर्ण माहौल पढऩे वाले युवाओं को सोचने को मजबूर कर रहा है कि वे क्या करें? यूं भी विश्वविद्यालय के कुछेक महकमों को छोड़ दें तो छात्रों से लेकर शिक्षक केवल राजनीतिक खेल में व्यस्त हैं। विश्वविद्यालय का रिकार्ड खंगालें तो नामचीन नेताओं के सगे संबंधी शिक्षक बमुश्किल कक्षाएं लेते हैं। जबकि कई तो खुद चुनाव लड़ते व टिकट आवंटन करने या करवाने का माद्दा रखते हैं। जाहिर है कि ऐसे संस्थान में टोकने वाले का दम कितना होगा?
यूं तो विश्वविद्यालय कभी नियुक्तियों में गड़बड़ी, तो कभी चुनाव न करवाने या कभी फीस वृद्धि, हॉस्टल आवंटन, रूसा इत्यादि को लेकर उठे विवादों के कारण सुर्खियों में रहता ही है लेकिन ङ्क्षहसा के कारण चर्चित रहने का इतिहास पुराना है।
हाल ही में जो तनाव, भय व बदतर शैक्षणिक रूप समरहिल में दिखा है वह इसलिए सुर्खियों में रहने की वजह बना है जब नैक की टीम दरवाजे पर खड़ी थी। इसी के आधार पर संस्थान की श्रेणी को तय होना है। यह दीगर है कि विवि के कुलपति प्रो. एडीएन वाजपेयी अपने निजी व सरकारी स्तर पर अच्छे संबंधों के कारण विवि को एक मुकाम देने का प्रयास करीब साढ़े चार साल से कर रहे हैं और छवि को सुधारने की कोशिश कई स्तर पर हुई लेकिन लाल दुर्ग को हाथ से वामपंथी खिसकने भी नहीं देना चाहते। इसलिए शीर्ष स्तर पर विचारधाराओं और एक तरफा फैसलों पर के कारण टकराव इस कदर बढ़ा कि विश्वविद्यालय शैक्षणिक संस्थान कम लेकिन पुलिस छावनी ज्यादा नजर आता है। यह भी सही है कि वाजपेयी ने सर उठाने वालों को अनुशासन का डंडा दिया या फिर उंगली टेढ़ी की और यहां तक कि छात्र संघ चुनावों में छात्रों की बोलती भी बंद की। पहले चुनाव करवाए परंतु छात्र परिषद का गठन नहीं किया। फिर चुनाव करवाए ही नहीं। इसके लिए उन्हें दो तरह से बल मिला। न सिर्फ कांग्रेस की सत्तारूढ़ सरकार का, जहां विवि में एनएसयूआई हमेशा फिसड्डी साबित होती रही। वहीं दूसरी तरफ भाजपा से संबद्ध फ्रंटल संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का, जो वामपंथियों को मुकाबले के बजाय विवि प्रबंधन से अपने मुताबिक गोटियां फिट करती रही। वहीं राजभवन का साथ भी प्राप्त किया। लिहाजा फर्क पड़ा वामपंथियों के फ्रंटल संघ एसएफआई को।
जो खूनी नजारा, सिर फटे चेहरे कैंपस में देखे गए वह निश्चित तौर पर शर्मनाक थे। लेकिन एक संदेश यह भी था कि सहनशीलता को प्रबंधन चुनौती न दे। भले ही चुनावी माहौल को हवा देने का जरिया यह घटनाएं तब बनाई गई जब यूजीसी की वरिष्ठ टीम मुआयने के लिए आई। खेद यह भी है कि छात्र संगठनों को पार्टियों के बड़े नेताओं की शह इसलिए है क्योंकि युवा तुर्क का इस्तेमाल यह नेता बखूबी करते हैं।
ऐसा नहीं कि छात्र यहां हर वक्त ही सर उठाते हैं। परंतु ध्यानाकर्षण के लिए एक अदद मौका हाथ आना चाहिए। मसलन जेएनयू में कन्हैया के राष्ट्र विरोधी नारों के बाद इसी विवि में भी एसएफआई की कुलबुलाहट बढ़ी थी। दरअसल शिमला के इस विश्वविद्यालय में जहां आज पुलिस की रैपिड एक्शन टीम तैनात है वहां के इतिहास पर गौर करें तो यहां 27 मर्तबा एसएफआइ का परचम लहराया है। यानी वाम संगठन का मजबूत किला यही है। यहीं से पूरे प्रदेश पर निगाहें यह संगठन रखता है। दूसरे नंबर पर परफारमेंस में एबीवीपी रही है। वर्ष 1983, 2001, 2002 व 2004 में एबीवीपी ने यहां एससीए में कुछ हद तक अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी लेकिन एनएसयूआई तो हमेशा पिछड़ी रही। जड़ें जमाना तो दूर यहां खाता तक न खोलने की परंपरा के कारण ही चुनावों पर नकेल कसने का एक बड़ा कारण विश्वविद्यालय में रहा।
हालिया उदाहरण लें तो वर्ष 2013 के बाद यहां चुनाव हुए ही नहीं और जब वर्ष 2012 में हुए थे इस पर शपथ एससीए को दिलाई ही नहीं गई। यानी साढ़े चार वर्ष से कार्यकारी परिषद में छात्र प्रतिनिधि का रास्ता भी बंद व छात्र आवाज भी बंद। फिर चाहे रूसा का मसला हो या फीस वृद्धि का। छात्र संगठन एक मौके पर इकट्ठा भी हो लिए। अभी एक वर्ष भी पूरा नहीं हुआ कि विश्वविद्यालय में छात्रों पर ताबड़तोड़ लाठियों की गूंज सदन तक भी पहुंची। अब ताजा ङ्क्षहसा एक बानगी है।
जाहिर है कि मौका व दस्तूर भांप कर विश्वविद्यालय की राह कठिन करने का प्रयास इस ङ्क्षहसा में किया गया है। लेकिन परंपरा बन चुके इस तनाव के माहौल से मुक्ति पाने की पहल किसी को तो करनी होगी। ऐसा न हो कि हर स्तर पर फल रही नेतागिरी शिक्षा के न्यूनतम सम्माननीय रूप को खो दे।
(लेखिका दैनिक जागरण की राज्य संपादक हैं।)

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