Move to Jagran APP

नहीं चाहता कि मेरी पत्नी की तरह जहरीले खाद्य से कोई मरे : डॉ. सुभाष पालेकर

रासायनिक व जैविक खेती के खिलाफ मुहिम छेडऩे वाले सुभाष पालेकर से बातचीत।

By BabitaEdited By: Published: Fri, 05 Oct 2018 12:08 PM (IST)Updated: Fri, 05 Oct 2018 12:08 PM (IST)
नहीं चाहता कि मेरी पत्नी की तरह जहरीले खाद्य से कोई मरे : डॉ. सुभाष पालेकर
नहीं चाहता कि मेरी पत्नी की तरह जहरीले खाद्य से कोई मरे : डॉ. सुभाष पालेकर

शिमला जेएनएन। ऐसी खेती जिसमें रसायन प्रयोग न हों, लागत शून्य हो व जहर से मुक्त हो, किसानों को समृद्ध व स्वावलंबी बनाए और पैदावार भी अधिक मिले...शून्य लागत प्राकृतिक खेती का यही आधार है। सतपुड़ा के जंगलों को देख शून्य लागत खेती का सपना देखा गया था। अब वो सपना साकार हो गया है। देश को रासायनिक व आर्गेनिक खेती से मुक्त कर बिना लागत के उत्पादन बढ़ाने के लिए शून्य लागत प्राकृतिक खेती के ध्वजवाहक पद्मश्री सुभाष पालेकर बने हैं। 12 साल की मेहनत व 154 रिसर्च प्रोजेक्ट के बाद वह इस तकनीक को किसानों के लिए लाए हैं। दैनिक जागरण के लिए मुकेश मेहरा व कुलदीप राणा ने सुभाष पालेकर से शून्य लागत प्राकृतिक खेती के हर पहलू को जाना : 

loksabha election banner

-आपने जैविक खेती को महंगा बताया। जो किसान पालमपुर या प्रदेश के अन्य हिस्सों में इस खेती को कर रहे हैं, वे इसे एकदम कैसे बंद कर सकते हैं? 

हंसते हुए... आज दिन तक मैंने कहीं भी जैविक खेती का सफल मॉडल नहीं देखा है। जहां भी यह खेती हो रही है, रसायन का प्रयोग हो रहा है। अगर यहां पर किसान खेती कर रहे हैं तो वे इसमें आसानी से बदलाव कर सकते हैं। मेरा दावा है कि उन्हें बेहतर परिणाम मिलेंगे। जैविक खेती के कारण जो प्राकृतिक खेती का पूरा लाभ किसानों की जमीन को मिलेगा। जैविक खेती पूर्णत: महंगी है और आज बड़ी कंपनियां इसके नाम पर लूट कर रही हैं। आप ही बताइए, कहां सफल है जैविक खेती। 

-आप कृषि विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं। कई साल रासायनिक खाद को पढ़ा, शून्य लागत प्राकृतिक खेती की ओर रुझान क्यों हुआ? 

पढ़ाई के दौरान सिखाया गया कि अधिक उत्पादन के लिए रासायनिक खाद जरूरी है। अपने एक प्रोजेक्ट के लिए सतपुड़ा के मेलघाट में गया। वहां प्रकृति को जानने का मौका मिला कि बिना रासायनिक खाद के पेड़ फलों से कैसे लदे हैं। वापस आकर जब अपने प्राचार्य से सवाल किया तो वह जवाब नहीं दे पाए। इसके बाद पढ़ाई छोड़ अपने खेतों में काम करना शुरू कर दिया। 

-आपने शुरू में रासायनिक खेती की। लेकिन 1985 के बाद इसे क्यों छोड़ा? 

कॉलेज से आने के बाद मैंने अपने खेतों पर ही प्रयोग करने का विचार किया ताकि प्रमाणित कर सकूं कि रासायनिक खेती व प्राकृतिक खेती का क्या प्रभाव है। पिताजी ने रासायनिक खेती का विरोध किया लेकिन बाद में मान गए। शुरू में उत्पादन अधिक हुआ तो खुश थे। 1975 से 1985 तक उत्पादन बढ़ा मगर लागत में भी बढ़ोतरी हुई। 1985 के बाद रासायनिक खेती से उत्पादन घटने लगा और लागत बढ़ गई। इसके बाद प्राकृतिक खेती की ओर रुझान हुआ। 

-सतपुड़ा के जंगलों का खेतों पर क्या असर महसूस किया? 

जंगलों को देख एक ही बात जहन में आई कि अगर वहां पेड़ बिना रसायनों के तैयार होते हैं तो खेत क्यों नहीं। अध्ययन किया और पिता जी की पारंपरिक खेती को समझा। गोबर की खाद से खेती करने पर क्या लाभ हो सकते हैं, इस पर काम शुरू किया। 1985 से 1988 तक अपने खेतों में काम किया जिसके परिणाम सामने आने लगे। 

-आपके रिसर्च प्रोजेक्ट किस तरह के थे? 

मेरे सभी प्रोजेक्ट तुलनात्मक आधार पर थे। भारत में इस समय तीन प्रकार की खेती हो रही है। रासायनिक, आर्गेनिक व प्राकृतिक। मैने सबसे पहले रासायनिक, आर्गेनिक व प्राकृतिक का तुलनात्मक अध्ययन किया। प्राकृतिक खेती में अन्य दोनों के मुकाबले कम लागत से उत्पादन अधिक हो रहा था। मौसम में आ रहे बदलाव पर अध्ययन किया तो पाया कि प्राकृतिक खेती ज्यादा टिकाऊ हैं क्योंकि वह प्रकृति पर निर्भर है। इससे ओलावृष्टि, बारिश व सूखे में अधिक नुकसान नहीं होता है क्योंकि खेती प्रकृति के अनुरूप ढल जाती है। 

-देश में बड़ी कंपनियों का नेटवर्क है? राज्यपाल आचार्य देवव्रत भी कह चुके हैं कि वैज्ञानिकों को कंपनियां लाभ देती हैं। क्या आपको वैज्ञानिकों का सहयोग मिल रहा है? 

हमने जहां-जहांशून्य लागत प्राकृतिक खेती के मॉडल तैयार किए, वहां वैज्ञानिकों ने इसे माना है। कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर के वैज्ञानिकों व कुलपति के साथ बैठक हुई। वैज्ञानिकों ने माना कि अब तक के उनके अनुसंधान में सार्थक परिणाम दिखे हैं। हिमाचल में सरकार व विभाग का पूरा सहयोग इस प्रोजेक्ट के लिए मिल रहा है। 

-आप हिमाचल में किसानों से रू-ब-रू हो रहे हैं। किसानों का कैसा रुझान है? 

देश में हिमाचल प्रदेश व आंध्र प्रदेश की सरकारें ही शून्य लागत प्राकृतिक खेती के लिए गंभीर हैं। राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने मिसाल पेश की है। उन्हीं की मेहनत का नतीजा है कि जब मैं किसानों से चर्चा करता हूं तो वे गंभीरता के साथ सुनते हैं। जिन किसानों ने इस खेती पर काम करना शुरू किया, वे इसे लाभदायक बता रहे हैं। यह सब सरकार, राज्यपाल व विभाग के सहयोग के बिना नहीं हो सकता है। अन्य राज्यों सरकारों को भी इससे सबक सीखना चाहिए। 

-कृषि विभाग का किस तरह सहयोग मिल रहा है? 

विभाग अपना काम कर रहा है। सबसे महत्वपूर्ण भूमिका राज्यपाल व सरकार की है। आचार्य देवव्रत ने मुहिम छेड़ी जिसे सरकार का सहयोग मिला और विभाग भी जुट गया। जब चीनी और पानी साथ मिल जाते हैं तो मिठास हो ही जाती है। मुझे उम्मीद है कि राज्यपाल का मार्गदर्शन, सरकार का सहयोग और विभाग के कर्मचरियों की मेहनत शून्य लागत खेती को बढ़ावा देने में सार्थक भूमिका निभाएगी। किसान भी इसके लिए गंभीर दिख रहे हैं। 

-प्राकृतिक खेती में देसी गाय की अहम भूमिका है लेकिन हिमाचल में पशुधन सड़कों पर है। मिशन सफल कैसे होगा? 

मै छह जिलों के किसानों को संबोधित कर रहा हूं। ज्यादातर किसानों के पास देसी गाय हैं। राज्यपाल ने भी कहा है कि वह 5000 देसी गाय हिमाचल को देंगे। उम्मीद है कि वह समस्या हल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। 

-अपने अभियान को हिमाचल में प्रभावी बनाने के लिए क्या योजना है? 

योजना की बात नहीं है। किसान जागरूक हों...इसमें मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है। मेरा प्रचार भी सोशल मीडिया में अधिक हुआ है। मीडिया को उपभोक्ताओं का दर्द भी बताना चाहिए क्योंकि आज शहर में रहने वाले लोग कैंसर व अन्य बीमारियों का शिकार हो रहे हैं। आज के दौर में लोग सेहत पर अधिक ध्यान दे रहे हैं। मैंने एक रिपोर्ट पढ़ी कि हिमाचल के कुछ जिलों के 45 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं... ऐसा क्यों है। अगर यह पहलू सामने आएंगे तो लोग जरूर शून्य लागत प्राकृतिक खेती का महत्व समझेंगे। सब अपने आप ठीक होगा। 

 

...नहीं चाहता कोई और शिकार बने 

मैंने अपनी पत्नी चंदा को रसायनिक खेती से पैदा हुए जहरीले खाद्य पदार्थों की बदौलत खोया है। मैं नहीं चाहता कोई और इसका शिकार बने। प्राकृतिक खेती से लोगों को कई बीमारियों से छुटकारा मिल जाएगा। 

 

मुझे पागल कहते थे लोग 

लोगों ने प्राकृतिक खेती के प्रचार-प्रसार के दौरान खुले तौर पर विरोध नहीं किया लेकिन बहिष्कार जरूर कर रहे थे। पत्नी चंदा के गहने बेचकर मैने अपना प्रोजेक्ट जारी रखा। उस समय किसी ने खुलकर साथ नहीं दिया। मैंने 1988 से 2000 तक लगभग 154 प्रकार के रिसर्च प्रोजेक्ट पर काम किया। उस दौरान हरित क्रांति का दौर था...लोग मुझे पागल कहने लगे। 

कौन हैं सुभाष पालेकर 

दो फरवरी 1949 को महाराष्ट्र में जन्मे सुभाष पालेकर कृषक एवं कृषि विशेषज्ञ हैं। उन्होंने शून्य लागत प्राकृतिक खेती का अविष्कार कर कई पुस्तकें लिखी हैं। ऐसी तकनीक विकसित की है जिसमें खेती करने के लिए रासायनिक कीटनाशक का उपयोग नहीं किया जाता है, न ही बाजार से अन्य औषधियां खरीदनी पड़ती हैं। उन्होंने देश में इस विषय पर कई कार्यशालाओं का आयोजन किया है। वह पद्मश्री से अलंकृत हैं। 


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.