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    यहां हुई आधी आबादी के जख्मों की सिलाई

    By Edited By:
    Updated: Thu, 08 Jan 2015 05:46 AM (IST)

    राज्य ब्यूरो, शिमला : बात आज या कल की नहीं .. 77 वर्ष पुरानी है, जब समाजसेवा के भाव से स्व. सरस्वती

    राज्य ब्यूरो, शिमला : बात आज या कल की नहीं .. 77 वर्ष पुरानी है, जब समाजसेवा के भाव से स्व. सरस्वती शंकर नाथ, गौरव माता व राजकुमारी अमृतकौर ने शिमला कुली कल्याण का कार्य शुरू किया। ताकि बर्फ में बोझा ढोने वाले कुलियों के पैर फटने पर उन्हें स्वास्थ्य सुविधा मिले। उन्हें हिंदी सिखाने का दारोमदार भी इन्होंने संभाला। इसके बाद उन्हें सिखाया गया बुनाई करना, जिससे ठंड के दिनों में वे खुद के लिए गर्म वस्त्र तैयार करें। समाज के लिए कुछ करने का सिलसिला भला इसके बाद भी कहां रुका। गौरव माता तो भीख मांग रहे बच्चों को घर पर लाकर नहला धोकर व खाना खिलाकर भेजती। जिन्हें जब समाज सेवा करने को पैसे पति से मांगने पड़ते या फिर जेब से खुद ही निकालने पड़ते। भले ही बाद में एक या दो पैसे निकालने का जिक्र फिर पति के सामने कर दिया करती। मगर अन्य महिलाओं को इस तरह पैसों के लिए पुरुषों के आगे हाथ न फैलाना पड़े, इसके लिए मन में ठानी और महिलाओं को सशक्त करना आरंभ कर दिया।

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    हिमाचल में वर्ष 1937 में वूमन काफ्रेंस का गठन किया और हर वर्ग की महिलाओं को इस संस्था से जोड़ा ताकि वह आत्मनिर्भर बनें। शिमला झांसी रानी पार्क में ऑल इंडिया वूमेन कांफ्रेंस में महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाया जा रहा है। जिससे न केवल उन्हें कमाई का साधन मिल रहा है बल्कि अपने बच्चों व परिवार को भी पूरा वक्त दे पा रही हैं। इसी मकसद से हर वर्ष यहां सिलाई- कढ़ाई, बुनाई, शुद्ध मसाले, ब्यूटीशियन, पेंटिंग आदि का प्रशिक्षण दिया जा रहा है।

    संस्था काम सिखाने के अतिरिक्त सिलाई, बुनाई, कढ़ाई व शुद्ध मसाले बनाने के ऑर्डर भी महिलाओं को दिला रही है। जिसे पूरा करने पर इन्हें पैसे मिलते है। संस्था के सौ सदस्य है जो खर्च स्वयं उठा रहे हैं। कार्यकारिणी में अध्यक्ष गरिमा गुप्ता, सचिव आभा सूद, उपाध्यक्ष निमी धीमान, संयुक्त सचिव आशा सूद व कोषाध्यक्ष राज सूद हैं। इससे पूर्व अध्यक्ष पद का जिम्मा स्व. सुरेंद्र सूद, मिस भान, मिस पसरीचा, प्रभा महाजन ने भी संभाला है।

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    माताओं ने सीखा, अब बेटियां भी

    '1980 से संस्था के माध्यम से हजारों महिलाओं व युवतियों को सिलाई का प्रशिक्षण दे चुकी हूं। इस बीच पैसे की चाह नहीं बल्कि महिलाओं को आत्मनिर्भर बनते देख ही संतुष्टि होती रही है। ऐसी लड़कियां भी अब प्रशिक्षण के लिए आती हैं जिनकी माताएं भी यहां प्रशिक्षित हो चुकी हैं।'

    -कौशल्या चंदेल, सिलाई अध्यापिका

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    पता नहीं चला वक्त का

    '1988 में इस सिलाई केंद्र में कदम रखा था। उस समय बच्चों को साथ लेकर यहां काम सीखने आती थी। एक वर्ष में डिप्लोमा तो लिया ही उसके बाद संस्था के माध्यम से कपड़ों की सिलाई के जो ऑर्डर आते उनमें हाथ बंटाया। इसकी मुझे सिलाई मिलती। सिलाई अध्यापिका कौशल्या चंदेल ही मेरी गुरु रही हैं, उनके साथ अब मैं भी अध्यापिका का जिम्मा संभाल रही हूं। इसी संस्था में काम सीखने व सिखाने के 28 साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला।'

    -मिथिलेश गहलोत