Mandi Disaster: रग-रग में बसी पीड़ा, कुकलाह से छतरी तक बह गए सपने; खामोश हो गईं सराज की वादियां
सराज घाटी में भारी बारिश और बाढ़ ने भारी तबाही मचाई है। कुकलाह से छतरी तक शिकारी माता की पहाड़ियों से निकलने वाले नालों ने सैंकड़ों घरों खेतों और रास्तों को तबाह कर दिया। जरोल थुनाड़ी और लम्बाथाच में कई घर बह गए जिससे लोग बेघर हो गए। पांडवशिला में तिलक राज का होमस्टे नष्ट हो गया। प्रशासन राहत कार्य कर रहा है।

हंसराज सैनी, पांडवशिला (मंडी)। सराज की पवित्र भूमि ने बहुत कुछ देखा है, संकट भी और संघर्ष भी। पर इस बार जो देखा, वह न सराज के बुजुर्गों ने देखा था, न युवाओं ने सोचा था।
कुकलाह से लेकर छतरी तक शिकारी माता की पावन चोटियों से निकले हर नाले और खड्ड ने इस बार ऐसा कहर बरपाया कि पूरी घाटी सिसक पड़ी। हर ओर तबाही का मंजर, हर आंख में आंसू, और हर दिल में एक ही सवाल था, क्यों?
शिकारी माता के चरणों से निकलने वाले बाखली, रुषाड़ खड्ड सहित छोटे-बड़े नाले, जो अब तक खेतों को सींचते थे, जीवन देते थे, अब काल बनकर टूट पड़े। देखते ही देखते सैंकड़ों मकान, बाग-बगीचे, रास्ते, पुलिया और इंसानों के सपने बह गए। किसी को संभलने का मौका तक नहीं मिला। एक झटके में सब कुछ खत्म।
चीखती रही धरती और हम बस भागते रहे…
जरोल के श्याम की आंखों में अब भी वो रात बसी हुई है। कांपते स्वर में कहते हैं, पहाड़ चीख रहा था... जैसे कोई दर्द में कराह रहा हो। मैं बच्चों को लेकर भागा, पीछे से मकान बह गया। जो कुछ जोड़ा था, सब चला गया। थुनाड़ी, लम्बाथाच और धारजरोल में तो हालात और भी भयानक थे। 30 जून की रात 20 से अधिक घर बह गए।
हर गांव में एक मातम पसरा है
छतरी, बगस्याड, थुनाग,देजी ,रैलचौक, हर गांव के किसी न किसी घर में चूल्हा ठंडा है, किसी घर में सिर ढकने को छत नहीं रही। कहीं जवान बेटे की मौत पर बिलखती मां है, तो कहीं उम्रदराज मां-बाप अपने उजड़े बच्चों को ढांढस बंधा रहे हैं।
मेरे सपने मिट्टी हो गए…
पांडवशिला के तिलक राज वन विभाग से सेवानिवृत्त हुए थे, अपनी जमा पूंजी से बनाए गए 25 कमरों के मकान और होम स्टे को दिखाते हुए कहते हैं, ये सिर्फ मकान नहीं था, ये मेरा सपना था। अब यहां सिर्फ मलबा है। मैं टूट गया हूं, मगर जीना अभी बाकी है।
राहत की उम्मीद, पर घाव गहरे हैं
प्रशासन ने राहत कैंप बनाए हैं, राशन और दवाइयों की आपूर्ति शुरू की गई है। मगर इस आपदा ने जो मनोवैज्ञानिक जख्म दिए हैं, उनकी भरपाई शायद किसी योजना से नहीं हो सकती। हर रात लोगों को खड्ड की गर्जना सुनाई देती है, जैसे फिर कुछ ले जाने आई हो।
सराज की घाटी आज सिसक रही है। यहां की मिट्टी में अब आंसुओं की नमी है, हवाओं में पीड़ा की सरसराहट है। मगर फिर भी, इस वीरान चुप्पी के बीच एक उम्मीद बाकी है कि लोग फिर खड़े होंगे, फिर घर बसाएंगे। शिकारी माता से फिर से उसी ममता की प्रार्थना करेंगे जो इस बार रूठ गई थी।
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