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पहाड़ की अनूठी परंपरा के रूप में मनाई जाती बूढ़ी दिवाली, गाए जाते हैं ये गीत

unique tradition of mountain. हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिला में दिवाली के ठीक एक माह बाद बूढ़ी दिवाली के रूप में यह पर्व मनाया जाता है।

By Sachin MishraEdited By: Published: Fri, 07 Dec 2018 05:19 PM (IST)Updated: Fri, 07 Dec 2018 05:19 PM (IST)
पहाड़ की अनूठी परंपरा के रूप में मनाई जाती बूढ़ी दिवाली, गाए जाते हैं ये गीत
पहाड़ की अनूठी परंपरा के रूप में मनाई जाती बूढ़ी दिवाली, गाए जाते हैं ये गीत

कुल्लू, दविंद्र ठाकुर। देशभर में जहां दिवाली पर्व धूमधाम से संपन्न हो चुका है वहीं, हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिला में दिवाली के ठीक एक माह बाद बूढ़ी दिवाली के रूप में यह पर्व मनाया जाता है। इसमें हिमाचल के कुल्लू जिले के आनी और निरमंड में अनोखे रूप से यह पर्व मनाया जाता है। ऐसी ही परंपरा हिमाचल के अन्य जिलों सिरमौर, शिमला, जनजातीय जिला लाहुल स्पीति, आदि में भी है। आनी के धोगी गांव में देवता शमशरी महादेव के सानिध्य में दो दिवसीय बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। इसके अलावा निरमंड में तीन दिवसीय बूढ़ी दिवाली मेले के रूप में मनाया जाता है।

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इस पर्व में लोगों को पुरातन संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। प्रकाशोत्सव के प्रतीक के तौर पर यहां पर मशालें जलाई जाती हैं, पारंपरिक वाद्ययंत्रों की थाप पर लोग झूम उठते हैं। इस वर्ष यह पर्व आनी के धोगी में छह और सात दिसंबर को और निरमंड में सात से दस दिसंबर तक तीन दिवसीय बूढ़ी दिवाली का आयोजन किया जा रहा है। सबसे अंत में फरवरी माह में लाहुल-स्पीति में दियाली मनाई जाएगी। वहां पर भी प्रकाश का प्रतीक मशालें जलाई जाती हैं।

गाए जाते हैं ये गीत 

इस देव कारज में रात को देवता शमशरी महादेव की पूजा करके तीन आग की मशालें जलाई जाती हैं। शमशरी महादेव के पुरोहितों द्वारा महादेव को नचाया जाता है और कांव गाए जाते हैं जिसमें ...किया माऊए किया काज बड़ी राजा देऊली राज देऊली वोले देऊलीए पारा ओरोऊ आई वुडिली ढेण तैसे नहीं सुना मेरा काम... आदि कांव गाए जाते हैं। बुजुर्गों के अनुसार इन गीतों को भूत पिशाच भगाने के लिए गाए जाते हैं।

एेसे मनाते हैं पर्व

सुबह के समय एक लंबा रस्सा बनाया जाता है। इसे एक विशेष घास से बनाया जाता है, जिसे मुंजी का घास कहा जाता है, उस रस्सी के अगले सिरे में महादेव के गुर नाचते हैं और पीछे से हजारों लोग नाचते हैं। पूरे मंदिर के तीन फेरे दिए जाते हैं और उसके बाद उस रस्सी को काटा जाता है और उस रस्सी को लोग अपने अपने घर ले जाते हैं। कहा जाता है कि इसको अपने घर पर रखने से चूहे और सांप आदि नही निकलते हैं।

पहाड़ की अनूठी परंपरा का महत्व

पहाड़ में इस अनूठी परंपरा का महत्व है इसमें देवता संग लोग भी नाचते हैं। इस पर्व को रामायण और महाभारत से भी जुड़ाव है। इनमें हनुमान के गीत के अलावा हनुमान-सीता संवाद, हनुमान-विभीषण संवाद से लेकर भगवान राम के आयोध्या तक आने का पूरा विवरण पेश किया जाता है। दूसरे दिन कौरव और पांडव के प्रतीक के तौर पर दो दल रस्साकसी करते हैं। विशेष तौर से बनाई गई मूंजी घास के रस्से से दोनों दल एक-दूसरे के साथ शक्ति प्रदर्शन करेंगे। इसके अलावा रात को एक दल गांव में मशालों के साथ प्रवेश करता है।

जानें, क्यों मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली

बुजुर्गों के अनुसार, जब भगवान राम ने लंका पर विजय का परचम लहराया था और वे 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे तो उनके अयोध्या लौटने की खुशी में लोगों ने घी के दीये जलाए थे। तब से लेकर पूरे देश में धूमधाम से दिवाली मनाई जाती है लेकिन पहाड़ों पर भगवान राम की लंका पर विजय का पता काफी देर बाद चला था जिस कारण तब से लेकर दिवाली के एक माह बाद बूढ़ी दिवाली के रूप में मनाने की परंपरा है। दिवाली के समय जहां दीये जलाने की रिवायत है, वहीं इन गांवों में मशालें जलाई जाती है।


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