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    Opinion on organic Agriculture: जैविक कृषि को लेकर व्यावहारिक हों, भावुक नहीं

    By Richa RanaEdited By:
    Updated: Tue, 07 Jun 2022 04:45 PM (IST)

    क्या था पीएल 480? आज की पीढ़ी शायद न जानती हो पर हमारे देश की स्वतंत्रता पश्चात परिस्थितियों विशेषत 1960 और 1970 के युग को जानने वाला हर व्यक्ति इससे परिचित है। देश की विकास व आत्मनिर्भरता को पीएल 480 नामक दुखद और कठिन दौर से गुजरना पड़ा था।

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    तरुण श्रीधर का कहना है कि कृषि में जैविक खेती को प्रोत्साहन वांछनीय है।

    धर्मशाला, जागरण संवाददाता। क्या था पीएल 480? आज की पीढ़ी शायद न जानती हो, पर हमारे देश की स्वतंत्रता पश्चात परिस्थितियों, विशेषत: 1960 और 1970 के युग को जानने वाला हर व्यक्ति इससे परिचित है। देश की विकास व आत्मनिर्भरता की यात्रा को पीएल 480 नामक दु:खद और कठिन दौर से गुजरना पड़ा था। घरेलू उपलब्धता बनी रहे, कीमतें काबू में रहें, इसलिए यूक्रेन-रूस युद्ध के कारण भारत ने गेहूं के निर्यात पर अस्थायी पाबंदी लगाई है। अमेरिका का अनुरोध है कि इस पाबंदी को समाप्त कर खाद्य पदार्थों की कमी वाले देशों को हम गेहूं उपलब्ध करवाएं। समय बदला है। यह वही अमेरिका है जिसके आगे हम गिड़गिड़ाते थे।

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    अपमानजनक शर्तों पर घटिया गुणवत्ता की गेहूं लेने के लिए। 1950 व 1960 में भारत के प्रधानमंत्री के लिए कटोरा लेकर विदेश जाना शर्मनाक तो था, लेकिन अपरिहार्य भी था, क्योंकि देश भूखमरी की कगार पर था। अमेरिका ने पीएल 480 के माध्यम से बचाव किया। पब्लिक ला 480 अमेरिकी कानून था जो अमेरिकी राष्ट्रपति को देश की अतिरिक्त गेहूं को रियायत पर निर्यात करने के लिए अधिकृत करता था। रियायत यह थी कि गेहूं की कीमत का भुगतान आयातक अपनी मुद्रा में कर सकता है। कितना बड़ा एहसान! दाम तो देना ही होगा; आप पर मेहरबानी, डालर की बजाय रुपये में भुगतान कर दें। जो गेहूं कई वर्षों तक अमेरिका से ली गई, और राशन की दुकानों से हम सब लेते रहे, आज वैसी गेहूं किसान अपने पशु को भी नहीं देगा। कुछ ही समय पश्चात, कुल उत्पादन में 14 प्रतिशत योगदान से, हम विश्व के दूसरे बड़े गेहूं उत्पादक बन गए हैं। आर्थिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है।

    खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता आर्थिक स्वतंत्रता के महत्वपूर्ण संकेतकों में से एक है। और जहां खाद्य उत्पादन का प्रश्न है, आज हम सरप्लस के दावे के साथ यह सामथ्र्य भी रखते हैं कि अन्य विकासशील देशों को आवश्यक खाद्य सामग्री उपलब्ध करवाएं। श्रीलंका के राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे ने अपने 2019 के चुनाव अभियान में देश के किसानों को 10 साल में जैविक कृषि में बदलने का वादा किया था। पिछले अप्रैल में, राजपक्षे की सरकार ने ऐसा कर दिया। सिंथेटिक उर्वरकों और कीटनाशकों के आयात और उपयोग पर देशव्यापी प्रतिबंध लगाया और देश के 20 लाख किसानों को जैविक खेती करने को कहा। परिणाम शीघ्र किंतु क्रूर मिला। दावा था कि जैविक तरीके पारंपरिक खेती से अधिक, नहीं तो कम से कम बराबर पैदावार दे सकते हैं। वास्तविकता है कि घरेलू चावल का उत्पादन केवल पहले छह महीनों में ही 20 प्रतिशत से अधिक गिर गया। लंबे समय से चावल उत्पादन में आत्मनिर्भर श्रीलंका अब 450 मिलियन डालर मूल्य के चावल का आयात करने के लिए मजबूर हो गया है।

    यह देश का प्रमुख राष्ट्रीय आहार है और इसकी घरेलू कीमतों में, इस थोड़े समय में ही लगभग 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। कृत्रिम उर्वरकों एवं कीटनाशकों पर प्रतिबंध ने देश की चाय की फसल, जो श्रीलंका का प्राथमिक निर्यात और विदेशी मुद्रा का स्रोत है को भी तबाही की ओर धकेल दिया, मात्र चंद माह में। आज श्रीलंका की इस स्थिति के लिए अन्य के साथ कृषि के वैज्ञानिक प्रबंधन का त्याग भी कारण है। जैविक कृषि एक समग्र उत्पादन प्रबंधन प्रणाली है; इसका केंद्र बिंदु है जैव विविधता, जैविक चक्र और मिट्टी की जैविक गुणवत्ता सहित कृषि-पारिस्थितिक तंत्र को स्वस्थ व संरक्षित रखना। उद्देश्य, कृषि को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तत्वों से मुक्त रख, खाद्य पदार्थों की सुरक्षा एवं गुणवत्ता सुनिश्चित करना। कृषि विज्ञान कहता है, उत्पादकता से समझौता किए बिना, जहां संभव हो, कृत्रिम और रासायनिक पदार्थों के उपयोग से बचें। साथ ही जैविक कृषि का सिद्धांत यह भी समझता है कि कृषि में प्रयोग की गई सामग्री से अधिक महत्वपूर्ण है उचित प्रबंधन, स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल। अत: जैविक की परिभाषा केवल उर्वरकों या कीटनाशकों तक सीमित रखना उचित नहीं। इसे समझना और क्रियान्वित करना होगा एक समग्र उत्पादन प्रबंधन प्रणाली के रूप में, जहां संभव हो, स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल।

    आज हम बिना वैज्ञानिक प्रमाण के, केवल भावनाओं के वश में होकर क्या अपनी कृषि फसलों को कलंकित नहीं कर रहे? विशेष रूप से बुद्धिजीवी और उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति। विश्व खाद्य संगठन के अनुसार विश्व स्तर पर केवल 1.2 फीसद कृषि भूमि को ही जैविक कहा जा सकता है। तो क्या यह समझा जाए कि पूरी वैश्विक आबादी ही हानिकारक भोजन का सेवन कर रही है? इसमें कोई संदेह नहीं है कि कुछ खाद्य पदार्थों में खतरनाक और जहरीले तत्वों की उपस्थिति के कारण बीमारियों की आशंका बनी रहती है। अत: खाद्य मानकों और सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए नियामक व्यवस्था का मजबूत और प्रभावी होना नितांत आवश्यक है। जैविक कृषि को ही इस समस्या का एकमात्र हल मानना कहां तक उचित है? क्या रणनीति पूरी कृषि और उपज को विषाक्त के रूप में चित्रित करने के बजाय बेहतर क्रियान्वयन में निहित नहीं होनी चाहिए? जहरीले तत्व हटें और पर्यावरण प्रदूषण पर सतर्क निगरानी रखें। जैविक भोजन अच्छा और स्वास्थ्यवर्धक होता है, यह सब मानते हैं, लेकिन इसके अनुरूप यह निष्कर्ष भी सर्वथा गलत है कि जो भोजन जैविक तरीके से नहीं उगाया गया वह स्वास्थ्य के प्रतिकूल है। फसलों की वैज्ञानिक रूप से समृद्ध किस्में विशाल जनसंख्या को सस्ती कीमतों पर पोषण प्रदान करती हैं। प्रबुद्ध किसान और सतर्क उपभोक्ता, शासकीय संस्थानों के समर्थन के साथ, निश्चित रूप से यह सुनिश्चित कर सकता है कि खाद्य सुरक्षा और गुणवत्ता मानकों से समझौता न किया जाए।

    भारत सरकार के मात्स्यिकी, पशुपालन एवं डेयरी मंत्रालय के भूतपूर्व सचिव तरुण श्रीधर का कहना है कि कृषि में जैविक खेती को प्रोत्साहन वांछनीय है, लेकिन जैविक में पूर्ण परिवर्तन की मांग करने की सक्रियता अव्यावहारिक और खतरनाक है; अथाह प्रयास से हासिल की गई खाद्य सुरक्षा को संकट में न डालें। एक निर्विवाद वैश्विक तथ्य यह है कि उत्पादकों की संख्या के हिसाब से भारत जैविक कृषि उत्पादों का सबसे बड़ा उत्पादक है। वैश्विक जैविक उत्पादकों में से लगभग 30 प्रतिशत भारत से हैं और जैविक कृषि में हमारा पारंपरिक ज्ञान और प्रथाएं सुदृढ़ हैं। मानव सभ्यता और प्रगति की कहानी, संक्षेप में, प्रकृति से छेड़छाड़ और उस पर हावी होने की कहानी है। खेती अपने आप में अस्वाभाविक है, इंसान के अलावा कोई भी अन्य प्राणी नहीं करता। इसे संरक्षित रखें। संशय होने पर श्रीलंका और पीएल 480 को भी याद कर लें।