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    Kullu Dussehra: कभी छह स्थानों पर मनाया जाता था कुल्लू दशहरा, जानिए इतिहास और मान्‍यता

    By Rajesh SharmaEdited By:
    Updated: Sun, 25 Oct 2020 08:52 AM (IST)

    Kullu Dussehra 2020 अंतरराष्‍ट्रीय कुल्लू दशहरा विश्‍वभर में विख्यात है। दशहरा समारोह में शामिल होने के लिए देश-विदेश से लोग पहुंचते हैं। एक समय था कि जब यह दशहरा इस क्षेत्र के 6 स्थानों पर मनाया जाता था।

    एक समय था कि जब अंतरराष्‍ट्रीय कुल्लू दशहरा इस क्षेत्र के 6 स्थानों पर मनाया जाता था।

    शिमला, प्रकाश भारद्वाज। अंतरराष्‍ट्रीय कुल्लू दशहरा विश्‍वभर में विख्यात है। दशहरा समारोह में शामिल होने के लिए देश-विदेश से लोग पहुंचते हैं। एक समय था कि जब यह दशहरा इस क्षेत्र के 6 स्थानों पर मनाया जाता था। लेकिन समय के साथ साथ दशहरा उत्सव का स्वरूप बदला। अब मुख्य रूप से कुल्लू के ढालपुर मैदान में ही दशहरा मनाया जाता है। अायोध्या से भगवान राम-सीता को कुल्लू लाने वाले राजा थे।

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    कुल्लू के दशहरे को इस क्षेत्र के 6 स्थानों में मनाने की परंपरा है। मकड़ाहर, हरिपुर, मणिकर्ण, ठाउआ, वशिष्ठ  और कुल्लू ढालपुर मैदान शामिल हैं। इन मंदिरों में से मकड़ाहर का मंदिर टूट गया है, इसलिए यहां पर दशहरा बंद हो गया है। ठाउआ में एक दिन का दशहरा उत्सव होता है। यहां पर मुरलीधर का मंदिर स्थापित है, यहां पर आश्विन शुक्ल दशमी को सुबह शस्त्र और घोड़ पूजन होता है। इस दिन मंदिर में शालग्राम, हनुमान और गरूढ़ की मूर्तियों को रथ की चौकियों में बिठाकर रथ के मोटे-मोटे रस्सों से खींच कर मंदिर की ड्योढ़ी तक लाते हैं। मूर्तियों को रथ से उतार कर मंदिर में लाने के साथ ही दशहरे का समापन हो जाता है।

    मणिकर्ण में राम और सीता की प्रतिष्ठित मूर्तियां बनाकर श्रृंगार करके रथ पर आरूढ़ किया जाता है। जुलूस के साथ पार्वती नदी के उंचे स्थान पर पहुंचकर नदी के बांयें किनारे पर छोटे घड़े को रखा जाता है। दूर रखे घड़े को पत्थर से तोड़ने की कोशिश की जाती है। जैसे ही घड़ा टूट जाता है लोग राम का जयघोष करके हनुमान को सम्मानित करते हैं। यह यात्रा जहां से शुरू होती है वहीं वापस लौट कर पहुंच जाती है।

    हरिपुर में यह उत्सव विजयदशमी से सात दिन तक चलता है। समय गुजरने के साथ अब यह केवल 5 दिन तक सीमित रह गया है। इसके पीछे कारण है कि लोग अंतिम 2 दिनों के लिए कुल्लू दशहरा देखने और सामान खरीदने के लिए ढालपुर चले जाते है।

    मनाली से तीन किलोमीटर दूर वशिष्ठ गांव बसा है यहां मंदिर में भगवान राम सीता लक्ष्मण और हनुमान की बड़ी मूर्तियां है। कुछ समय पहले तक यहां भी रथयात्रा निकलती थी। लेकिन रथ टूटने के कारण दशहरा में रथयात्रा की परंपरा को बंद कर दिया गया है।

    राजा जगत स‍िंह ने स्‍थापित किया था रघुनाथ मंदिर

    कुल्लू में रघुनाथ मंदिर राजा जगत सिंह के शासनकाल की देन है। जिनका शासनकाल का समय 1637-62 ई. का है। 1637 ई. में उन्होंने कुल्लू की राजगद्दी संभाली। एक बार इनके राज्य के एक गांव टिपरी के रहने वाले ब्राह्मण परिवार ने अपने रिश्तेदार ब्राह्मण दुर्गादत्त की झूठी शिकायत की। शिकायत में दावा किया गया कि ब्राह्मण के पास एक पत्था यानि लगभग एक किलोग्राम सुच्चे मोती हैं। राजा शिकायतकर्त्ता की बातों में आ गया। जिसके चलते ब्राह्मण ने परिवार सहित आत्मदाह कर लिया। इसके बाद राजा को अपने किये पर भारी पश्चाताप हुआ। कुछ समय बाद राजा को गंभीर बीमारी हो गई। जिसके कारण वह वैष्णव सम्प्रदाय के सिद्ध महात्मा कृष्णदास पयहारी की शरण में चले गये। महात्मा ने उनके रोग का निवारण करके उनको नृसिंह भगवान की मूर्ति प्रदान की। राजा ने अपनी गद्दी पर भगवान नृसिंह को स्थापित किया और स्वयं एक छड़ीबदार के रूप में सेवा करने लगे।

    समय बीतने के बाद महात्मा ने राजा को अवध यानी आज की अायोध्या से त्रेतानाथ मंदिर से भगवान राम तथा सीता मूर्तियां लाने को कहा। इन मूर्तियों की विशेषता यह थी कि इन मूर्तियों को राम ने स्वयं अश्वमेध यज्ञ के लिए बनवाया था। अयोध्या से इन मूर्तियों को लाने का काम वैष्णव संत के शिष्य पंडित दामोदर दास गोसांई को दिया गया।

    दामोदर दास के बारे में बताया जाता है कि उसके पास एक विशेष सिद्धि थी, जिसके द्वारा वह मुंह में कुछ पदार्थ रखकर अदृश्य हो गया और अयोध्या में प्रकट हो गया। वहां वह त्रेतानाथ मंदिर के एक पुजारी का शिष्य बन गया। दामोदर दास ने वहां से मूर्तियों को उठाया और हरिद्वार पहुंच गया। वहां के पुजारी जोधावर को गुजारे की रकम भिजवाने के बाद दामोदर दास मूर्तियां लेकर कुल्लू की ओर चल पड़ा। इसके बाद राजा ने दामोदर दास का खूब स्वागत किया। अपने सिंहासन पर स्थित नृसिंह भगवान के साथ ही मूर्तियों को स्थापित कर दिया। इस अवसर पर राजा ने बड़े उत्सव का आयोजन किया। राजा को कुष्ठ की बीमारी थी लेकिन प्रतिदिन की पूजा को देखने और चरणामृत के सेवन से राजा रोगमुक्‍त हो गया। राजा ने अपनी सारी जागीर रघुनाथ को अर्पण कर दी। स्वयं सेवक बन गया।

    पंडित को भुंतर दान में

    मूर्तियां लाने के लिए गए पंडित दामोदार दास को राजा ने भूईंण यानी भुंतर में मंदिर बनवा दिया। उसे चौरासी खार अनाज की पैदावार वाली जमीन प्रदान की। आज भी इस वंश के पंडित सालीग्राम गोसांई के घर में यह प्राचीन मंदिर मौजूद है। राजा रघुनाथ के लिए एक टका और एक रुपये प्रतिदिन भेंट करता था। राजा की ओर से 500 की राशि प्रति वर्ष अायोध्या के त्रेतानाथ मंदिर में पहुंचा दी जाती थी। राजा ने त्रेतानाथ के पुजारी और उसके परिवार को कुल्लू बुलाया। वैष्णव धर्म के पोषक महात्मा कृष्णदास पयहारी संत ने राजा को अपना भक्त बना दिया। उस समय यहां नाथों का बहुत प्रभाव था। लेकिन महात्मा ने घाटी में वैष्णव धर्म का प्रचार किया। इसी समय से ही रघुनाथ कुल्लू के प्रधान देवता के रूप में प्रतिष्ठित हुए। मूर्तियों के चमत्कार को देखकर कुल्लू के सभी 365 देवी-देवता रघुनाथ के दर्शनों को आए, जो आज तक परंपरा का अटूट हिस्सा बना हुआ है।