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    बेहद आकर्षक है ये च‍ित्रकला, फूल पत्तियों से बनते हैं रंग

    By Munish DixitEdited By:
    Updated: Tue, 30 Oct 2018 12:34 PM (IST)

    कांगड़ा चित्रकला का मुख्य विषय श्रृंगार है। कांगड़ा चित्रकला के पात्र समाज की जीवनशैली दर्शाते हैं।

    बेहद आकर्षक है ये च‍ित्रकला, फूल पत्तियों से बनते हैं रंग

    धर्मशाला, मुनीष दीक्ष‍ित। दुन‍िया में च‍ित्रकला की कई शैल‍ियां हैं। लेकिन ह‍िमाचल की कांगड़ा च‍ित्रकला शैली का अपना एक अलग ही इत‍िहास व रोचकता है। 18वीं शताब्दी में शुरु हुई बेहद आकर्षक है। कांगड़ा चित्रकला का उदगम ह‍िमाचल प्रदेश के कांगड़ा से हुआ था। इसे कांगड़ा के राज पर‍िवारों की देन माना जाता है। इसके फलने-फूलने का कारण बिसोहली चित्रकारी का अठारह्वीं शताब्दी में फीका पड़ जाना था।

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    हालांकि कांगड़ा चित्रों के मुख्य केंद्र गुलेर, बसोली, चंबा, नूरपुर, बिलासपुर और कांगड़ा हैं, बाद में यह शैली मंडी, सुकेट, कुल्लू, आर्की, नालागढ़ और टिहरी गढ़वाल (मोला राम द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया) में भी पहुंच गई और अब इसे सामूहिक रूप से पहाड़ी चित्रकला के रूप में जाना जाता है, जो कि 17वीं और 19वीं शताब्दी के बीच राजपूत शासकों द्वारा संरक्षित शैली को दर्शाता है।

    इस शैली में उस दौर में बनाए गए चित्र बही खातों के लिए बनाए गए विशेष प्रकार के हस्त निर्मित कागज़ों पर बनाए जाते थे, जिन्हें सियालकोट कागज़ भी कहा जाता है था। कागज़ को पहले एक सफेद द्रव्य से लेप दिया जाता है और बाद में शंख से घिस कर चिकना किया जाता है। इससे कागज़ मज़बूद और आकर्षक बन जाता है। रंगों को फूलों, पत्तियों, जड़ों, मिट्टी के विभिन्न रंगों, जड़ी बूटियों और बीजों से निकाल कर बनाया जाता है। इन्हें मिट्टी के प्यालों या बड़ी सीपों में रखा जाता है। अब भी कुछ कलाकार इस च‍ित्रों को उसी ढंग से बना रहे हैं।

    हालांक‍ि आजकल कांगड़ा शैली के चित्र हर प्रकार के कागज़ पर पोस्टर रंगों की मदद से तैयार क‍िए जाने लगे हैं। कलाप्रेमियों के लिए इनकी कीमत भी प्राकृतिक वस्तुओं से बने मूल चित्रों से कई गुना कम होती है। इन्हें हस्तकला की दुकानों, चित्रकला की दुकानों या पर्यटन स्थलों पर आसानी से खरीदा जा सकता है। लेक‍िन पुराने ढंग से न‍िर्म‍ित शैली में तैयार च‍ित्रों की कीमत हजारों में जाती है।

    कांगड़ा च‍ित्रकला का इत‍िहास

    18वीं शताब्दी में कांगड़ा चित्रकला शैली का जन्म कांगड़ा के गुलेर नामक स्थान में हुआ था। कांगड़ा चित्रकला के विशेषज्ञ धनीराम खुशदिल बताते हैं कि मुगल चित्रकला शैली के कलाकार कश्मीर के परिवार को राजा दलीप सिंह ने अपने राज्य गुलेर (1695-1741) में शरण दी और गुलेर चित्रकला विकसित होना शुरू हुई। इन चित्रों में चित्रकार अपने मालिक के पोट्रेट और उनके प्रेम प्रसंग के दृश्य, राधा कृष्ण के प्रेम-प्रसंग के दृश्य जैसे विषय लेते थे। कलाकार प्राकृतिक एवं ताजे रंगों का प्रयोग करते थे। ये रंग खनिज व वनस्पति से बनते थे, इनसे चित्रों में चमक तथा प्राकृतिक दृश्य जैसी हरियाली होती थी।

    इसके बाद गुलेर के राजा गोवर्धन चंद के समय में इसका स्वर्णयुग माना जाता है। बाद में कांगड़ा के शासक महाराजा संसार चंद कटोच के शासनकाल में यह शैली शीर्ष तक पहुंची तथा इसे कांगड़ा कलाशैली के नाम से प्रसिद्धी मिली। लेकिन अब भी कांगड़ा व गुलेर चित्रकला में हल्का अंतर है, जिसे कलाकार ही अधिक पहचान सकते हैं।

    कांगड़ा चित्रकला का मुख्य विषय श्रृंगार है। कांगड़ा चित्रकला के पात्र उस समय के समाज की जीवनशैली दर्शाते थे। भक्ति सूत्र इसकी मुख्य शक्ति है और राधा-कृष्ण की प्रेम कथा इसका मुख्य भक्ति अनुभव है जिसे दिखने के लिए आधार मन है। कांगड़ा चित्रकला के खूबसूरत लक्षण फूल, पौधे, लता, नदी, बिना पत्तों के पेड़ आदि हैं। कांगड़ा चित्रकला लयबद्ध रंगों के लिए जानी जाती है। इसकी सबसे अध‍िक व‍िशेषता यह है क‍ि इसके रंग आज भी फूल पत्तियों से बनते हैं।