भटियात व कांगड़ा में भी मनाया जाता है मिंजर
एमएम डैनियल, चंबा
विश्व विख्यात हो चुके मिंजर मेला पर्व का इतिहास केवल चंबा नगरी से ही नहीं जुड़ा है, बल्कि रियासतकाल में चंबा प्रवेश के प्रथम द्वार भटियात व कांगड़ा जिला के साथ भी यह पर्व जुड़ा हुआ है। यहां भी मिंजर पर्व को बड़ी श्रद्धा से मनाया जाता है। लेकिन यहां फर्क सिर्फ इतना है कि चंबा नगर की भांति यहां सांस्कृतिक संध्या, खेलकूद व शोभायात्रा जैसी गतिविधियां आयोजित नहीं होती हैं। जबकि शेष सारी रस्म चंबा नगरी मिंजर की भांति निभाई जाती है। गौर हो कि रियासतकाल में दसवीं शताब्दी के इतिहास के दर्ज पन्नों पर अगर नजर डाली जाए तो मिंजर पर्व आगाज का जिक्र दसवीं शताब्दी तत्कालीन शासक साहिल वर्मन से जुड़ा हुआ है। जिसमें शासक वर्मन ने पड़ोसी रियासत कांगड़ा व जम्मू पर युद्ध में विजय हासिल की थी। जिसमें तत्काल चंबा रियासत में प्रवेश दौरान पहले रियासत के द्वार कांगड़ा के द्रमण क्षेत्र में स्थित रेलू गांव व भटियात के टूंडी, समोट, सिहुंता, व चुवाड़ी में मक्की फसलों को लहराता देख युद्ध विजय के प्रतीत में शासक साहिल वर्मन ने जीत कार्यक्रम आयोजित किए। वहीं चंबा रियासत नगरी में युद्ध जीत पर्व को पूर्ण रूप से तत्काल शासक वर्मन ने विकसित किया। जिसमें जनता के व्यापार लेन-देन के लिए जीत के पर्व को मेले का रूप दे दिया। जबकि सन् 1642 में तत्कालीन शासक पृथ्वी सिंह द्वारा मिर्जा परिवार बुजुर्ग सदस्यों की तिले, जरी घोटे की कारीगीरी से तैयार नायाब मिंजर को राजकीय सम्मान देते हुए शुद्ध तिले युक्त मिंजर को भगवान लक्ष्मी नारायण, सहित अन्य देवताओं समूह व विशेषकर सालीग्राम प्रति चिन्ह रघुवीर महाराज को अर्पित करने के लिए चयन किया गया। जोकि वर्तमान तक कायम है।
मगर भटियात व कांगड़ा क्षेत्र में रियासतकाल में प्रजा द्वारा चीड़ की पत्तियों के उपरी भाग पर रेशम की डोर बांध मिंजर तैयार की गई। इस प्राचीन मिंजर कारीगीरी युक्त चीड़ पत्तियों की मिंजर बनाने का रिवाज आज भी भटियात व जिला कांगड़ा में देखने को मिलता है। भटियात क्षेत्र में भी मिंजर आगाज सावन के तीसरे रविवार को मिंजर बनाना आरंभ कर दिया जाता है। लेकिन यहां चंबा की भांति मिंजर को बहने भाई को बांधने या फिर गण्यमान्य व्यक्तियों द्वारा मिंजर बांधने का रिवाज नहीं है। लेकिन यहां जिस प्रकार सावन के चौथे रविवार सायंकाल मिंजर विसर्जन की रस्म अदा होती है। उसी समय भटियात व वर्तमान में कांगड़ा के रेलू गांव में भी मिंजर की अंतिम रस्म अदा की जाती है।
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