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    सीओपीडी: ऐसे आएगा काबू में

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    Updated: Tue, 06 Aug 2013 01:00 PM (IST)

    65 वर्षीय वी.के. राय अपने बेटे का सहारा लिए खांसते हुए मेरे क्लीनिक पहुंचे। उस वक्त सांस लेने में उन्हें दिक्कत हो रही थी। चेकअप और जांचों के निष्कर्ष से पता लगा कि वह क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) से ग्रस्त हैं और कई महीनों से खांसी का इलाज भी चल रहा था। वह धूम्रपान की ल्

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    65 वर्षीय वी.के. राय अपने बेटे का सहारा लिए खांसते हुए मेरे क्लीनिक पहुंचे। उस वक्त सांस लेने में उन्हें दिक्कत हो रही थी। चेकअप और जांचों के निष्कर्ष से पता लगा कि वह क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) से ग्रस्त हैं और कई महीनों से खांसी का इलाज भी चल रहा था। वह धूम्रपान की लत के शिकार थे और पिछले कई महीनों से खांसी, सांस में तकलीफ और बलगम बनने की शिकायत से ग्रस्त थे। रोगी ने मुझसे पूछा कि मैं कितने दिनों में ठीक हो जाऊंगा? इस पर मैंने जवाब दिया कि आपको जो रोग है, उसे काबू में तो रखा जा सकता है, लेकिन इसे पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता। यह सुनकर रोगी के चेहरे पर निराशा नजर आयी, लेकिन मैंने जब रोगी को यह बताया कि 'सीओपीडी' से पीड़ित लोगों के लिए पुनर्वास कार्यक्रम के अंतर्गत व्यायाम, रोग का प्रबंधन और उसकी काउंसलिंग भी की जाती है, जिसके परिणामस्वरूप रोगी के जीवन की गुणवत्ता में सुधार आता है। तब उसका चेहरा खुशी से दमक उठा।'' यह कहना है, बॉम्बे हॉस्पिटल, मुंबई के सीनियर पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. कपिल सल्जिया का। इस रोग में सांस नली में सिकुड़न व सूजन आ जाती है, जो कालांतर में फेफड़ों को स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त कर सकती है। 'सीओपीडी' के दो प्रकार हैं। पहला, क्रॉनिक ब्रॉन्काइटिस और दूसरा एमफीसीमा। क्रॉनिक ब्रॉन्काइटिस में सामान्यत: एक लंबे वक्त तक रोगी को खांसी व बलगम की शिकायत रहती है। वहीं एमफीसीमा में एक अर्से के बाद रोगी के फेफड़े क्षतिग्रस्त हो जाते हैं।

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    बीमारी के लक्षणों के बारे में किंग जार्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी, लखनऊ में पल्मोनरी मेडिसिन विभाग के प्रमुख डॉ. सूर्यकांत कहते हैं

    -सबसे पहले रोगी को खांसी आती है।

    -खांसी के साथ बलगम भी निकलता है।

    -पीड़ित व्यक्ति की सांस फूलती है।

    -इस स्थिति में मरीज अक्सर हांफने लगता है और समय के साथ यह स्थिति और बिगड़ती जाती है। और तो और, व्यायाम करने पर सांस कहीं अधिक उखड़ने लगती है।

    -'सीओपीडी' की गंभीर अवस्था कॉरपल्मोनेल की समस्या पैदा कर सकती है। इस स्थिति में हृदय पर दबाव पड़ता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि हृदय द्वारा फेफड़ों को रक्त की आपूर्ति करने में उसे अतिरिक्त परिश्रम करना पड़ता है। कॉरपल्मोनेल के लक्षणों में एक लक्षण पैरों और टखने में सूजन आना है।

    -तेज खांसी आने से पसलियां टूट सकती हैं या फिर पीड़ित व्यक्ति को कुछ समय के लिए बेहोशी भी आ सकती है।

    -मुख्य तौर पर यह बीमारी 40 साल के बाद ही शुरू होती है, लेकिन कभी-कभी इस उम्र से पहले भी व्यक्ति 'सीओपीडी' से ग्रस्त हो सकता है।

    -बीमारी की गंभीर स्थिति में रोगी को सांस अंदर लेने की तुलना में सांस बाहर छोड़ने में ज्यादा वक्त लग सकता है। रोगी द्वारा थकान महसूस करना और उसके वजन का कम होते जाना भी देखा जाता है।

    नई दिल्ली के बी.एल.के. हॉस्पिटल के सीनियर पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. पुनीत खन्ना का कहना है कि 'सीओपीडी' का एक प्रमुख कारण धूम्रपान है। अगर रोगी इस लत को नहीं छोड़ता तो उसकी बीमारी गंभीर रूप अख्तियार कर सकती है। धूम्रपान से कालांतर में फेफड़ों को नुकसान पहुंचता है। फेफड़ों में सूजन आने लगती है, उनमें बलगम जमा होने लगता है। फेफड़े की सामान्य संरचना विकारग्रस्त होने लगती है। फेफड़ों का कार्य शरीर को ऑक्सीजन प्रदान करना है, लेकिन धूम्रपान के कुप्रभाव से फेफड़ों को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन नहीं मिल पाता। इसी तरह धूल, धुआं और प्रदूषित माहौल में काफी समय तक रहने से भी इस रोग के होने का जोखिम बढ़ जाता है। वहीं जो महिलाएं ग्रामीण या अन्य क्षेत्रों में चूल्हे पर खाना बनाती हैं, उनमें 'सीओपीडी' से ग्रस्त होने के मामले कहीं ज्यादा सामने आते हैं। वहीं जो लोग रासायनिक संयंत्रों में या ऐसे कार्यस्थलों में कार्य करते हैं, जहां के माहौल में कुछ नुकसानदेह गैसें व्याप्त हैं तो यह स्थिति 'सीओपीडी' के जोखिम को बढ़ा सकती है। इसी तरह सर्दी-जुकाम की पुरानी शिकायत, जो पूर्व में लंबे वक्त तक चल चुकी हो।

    कहते हैं कि रोगग्रस्त होने से बेहतर है बचाव करना। 'सीओपीडी' से पीड़ित व्यक्तियों को..

    1.डॉक्टर के परामर्श से हर साल इंफ्लूएन्जा की और न्यूमोकोकल (न्यूमोनिया से संबंधित) वैक्सीनें लगवानी चाहिए।

    2. धूम्रपान कर रहे व्यक्ति के करीब न रहें।

    3.धूल, धुएं और प्रदूषित माहौल से बचें।

    4. रसोईघर में गैस व धुएं की निकासी के लिए समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।

    फोर्टिस हॉस्पिटल, वसंतकुंज, नई दिल्ली की कंसल्टेंट पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. शिवानी स्वामी बताती हैं कि सीओपीडी की सबसे सटीक जांच स्पाइरोमीट्री नामक परीक्षण है। इसे लंग्स फंक्शन टेस्ट भी कहते हैं। इस परीक्षण से फेफड़े की कार्यक्षमता का सटीक आकलन किया जाता है। इसके अलावा चेस्ट एक्सरे भी कराया जाता है। इसे नियंत्रित करने में स्टेरॉयड इनहेलर्स और एंटीकॉलीनेर्जिक टेब्लेट्स की भूमिका महत्वपूर्ण है। अधिकतर दवाएं इनहेलर के रूप में इस्तेमाल की जाती हैं जैसे टायोट्रोपियम, इप्राट्रोपियम और सॉलमीटीरोल आदि। ये दवाओं के ब्रांड नेम नहीं, बल्कि उनमें पाए जाने वाले तत्व हैं।

    कानपुर के सीनियर पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. ए .के. सिंह की राय है कि कभी-कभी 'सीओपीडी' की तीव्रता बहुत बढ़ जाती है, जिसे 'एक्यूट एक्सासरबेशन' कहते हैं। इस स्थिति का मुख्य कारण फेफड़ों में जीवाणुओं का संक्रमण होता है। इस संक्रमण के चलते फेफड़ों की कार्यक्षमता कम हो जाती है। रोगी के बलगम का रंग बदल जाता है, जो सफेद से हरा या पीला हो जाता है। रोगी द्वारा सांस तेज लेना, हृदय की धड़कन का बढ़ना, पसीना आना, गर्दन की मांसपेशियों का अति सक्रिय होना और त्वचा पर नीलापन आना इस स्थिति के कुछ गंभीर लक्षण हैं। यहीं नहीं, 'एक्यूट एक्सासरबेशन' की स्थिति में शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती और कार्बन-डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाती है। 'सीओपीडी' में मौत होने का मुख्य कारण यही स्थिति होती है। इस गंभीर स्थिति में रोगी को बाईपैप थेरेपी और ऑक्सीजन दी जाती है। इसके अलावा नेबुलाइजर का प्रयोग कर रोगी को उचित एंटीबॉयटिक दवाएं दी जाती हैं। रोगी को दृढ़ इच्छाशक्ति से धूम्रपान छोड़ देना चाहिए। धूम्रपान छोड़ देने से रोगी की स्थिति में सुधार की प्रक्रिया तेज हो जाती है।

    विवेक शुक्ला

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