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    लम्बर स्पॉन्डिलाइटिस का कारगर इलाज

    By Babita kashyapEdited By:
    Updated: Tue, 24 Feb 2015 11:34 AM (IST)

    लम्बर स्पॉन्डिलाइटिस को अर्थराइटिस का ही एक रूप माना जाता है। यह समस्या प्रमुख रूप से रीढ़ की हड्डी (स्पाइन) को प्रभावित करती है।

    लम्बर स्पॉन्डिलाइटिस को अर्थराइटिस का ही एक रूप माना जाता है। यह समस्या प्रमुख रूप से रीढ़ की हड्डी (स्पाइन) को प्रभावित करती है।

    लक्षण

    सरल भाषा में कहें, तो लंबर स्पॉन्डिलाइटिस से पीडि़त व्यक्ति के वर्टिब्रल ज्वाइंट में सूजन आ जाती है, जो कमर दर्द और गर्दन के दर्द का एक कारण है। इस रोग में दर्द धीरे-धीरे बढ़ता जाता है। गंभीर स्थिति में गर्दन, कंधों और कमर को चलाना मुश्किल हो जाता है। स्पॉन्डिलाइटिस में अंदरूनी तौर पर रीढ़ के जोड़ खुल जाते हैं। हड्डियों के टूटने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं। कभी रोग की गंभीर स्थिति में हाथ-पैरों में झनझनाहट और सुन्नपन की समस्या भी पैदा हो जाती है।

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    उपचार

    आमतौर पर यह इस पर निर्भर करता है कि पीडि़त व्यक्ति को कितनी जल्दी उपचार मिला है। जैसे यदि युवाओं में समस्या हो, तो उसे प्रथम अवस्था (फस्र्ट स्टेज) की बीमारी मानकर सामान्य उपचार से ठीक

    किया जाता है, लेकिन यदि समस्या पुरानी है तो कई तरह से उपचार किया जा सकता है। साथ ही उपचार समस्या के प्रकार पर भी निर्भर करता है। प्रथम अवस्था की समस्या के लिए सामान्य रूप से ओजोन थेरेपी

    को प्रयोग में लाया जाता है।

    प्रथम अवस्था की समस्या

    अमूमन युवाओं को होती है। इस समस्या में हड्डियों का लचीलापन कम हो जाता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि हड्डी

    के अंदर का तरल पदार्थ सूखकर ठोस कैल्शियम का रूप ले लेता है। इस कारण रीढ़ की हड्डियों के बीच स्थित डिस्क में खोखलापन आ जाता है।

    स्पाइन का शॉक

    एब्जॉर्वर सिस्टम खराब हो जाता है। ओजोन थेरेपी से सूख गए तरल पदार्थ को फिर से पुरानी स्थिति में लाया

    जाता है, लेकिन यह पुराने मरीजों पर कारगर नहीं होती है। ओजोन थेरेपी की सफलता 80 से 85 प्रतिशत तक रहती है। दूसरी अवस्था में वे मरीज आते हैं, जो इस समस्या से काफी दिनों से जूझ रहे होते हैं। इन मरीजों के हाथ, पैरों में झनझनाहट, हड्डियां टूटने जैसी अन्य समस्याएं होती हैं।

    इसे चिकित्सकीय भाषा में स्पॉन्डीलोलाइसिस कहा जाता है। इस रोग में हड्डियां नुकीली हो जाती है,

    जिससे शरीर में असहनीय दर्द होता है। इस अवस्था के इलाज में रेडियो फ्रीक्वेंसी एब्लेशन तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। तीसरी अवस्था के मरीज वे होते हंै, जिनमें हाथ-पैरों का सुन्न हो जाना, पैरों का पतला होते जाना, मल-मूत्र में समस्या, लकवा की समस्या, स्लिप डिस्क और न्यूरोलॉजिकल समस्याएं होती हैं। वहीं

    कई बार डिस्क के अंदर का तरल पदार्थ अपने निर्धारित घेरे को तोड़कर स्पाइनल कार्ड के नर्वस सिस्टम की नसों को नुकसान पहुंचाने लगता है। इस अवस्था के मरीजों के लिए न्यूक्लियोप्लास्टी और एनुलोप्लास्टी तकनीक अपनाई जाती है।

    डॉ.सुदीप जैन स्पाइन सर्जन

    नई दिल्ली