'सारकॉइडोसिस' को टी.बी न समझें
ट्यूबरकुलोसिस (टी.बी.) से मिलती-जुलती एक अन्य बीमारी है,जिसे सारकॉइडोसिस कहते हैं। टी.बी. की बीमारी की तरह यह भी शरीर के किसी भी भाग को प्रभावित कर सकती है, हालांकि
ट्यूबरकुलोसिस (टी.बी.) से मिलती-जुलती एक अन्य बीमारी है,जिसे सारकॉइडोसिस कहते हैं। टी.बी. की बीमारी की तरह यह भी शरीर के किसी भी भाग को प्रभावित कर सकती है, हालांकि 90 प्रतिशत रोगियों में यह रोग टी.बी. की तरह फेफड़ों को प्रभावित करता है। पहले ऐसा समझा जाता है था कि सारकॉइडोसिस नाम की बीमारी देश में नहीं पायी जाती है, लेकिन पिछले कुछ सालों में इस रोग से काफी लोग ग्रस्त हो चुके हैं, जिसका सिलसिला जारी है। चूंकि इस रोग के लक्षण टी.बी. की बीमारी से मिलते-जुलते हैं। इसलिए दोनों में अंतर करना डॉक्टर और रोगी दोनों के लिए कठिन कार्य है। अक्सर ऐसा देखा गया है कि सारकॉइडोसिस के रोगी का इलाज टी.बी. की दवाओं से होता है। अंतत: डॉक्टर को यह पता चलता है कि पीड़ित व्यक्ति को टी.बी. की बीमारी थी ही नहीं और वह सारकॉइडोसिस की बीमारी से प्रभावित था।
लक्षण
-प्रारंभिक स्थिति में अधिकतर रोगियों में सूखी खांसी, हल्का बुखार, हाथ पैरों में दर्द और कभी-कभी सांस फूलना आदि लक्षण प्रकट होते हैं।
-जब बीमारी कुछ बढ़ने लगती है, तब फेफड़े के अंदर बड़ी-बड़ी गांठें बन जाती हैं और फेफड़े का आकार छोटा होता जाता है।
-रोगी की लगातर सांस फूलने लगती है और खांसी में आराम नहीं मिलता।
-जब शरीर के दूसरे अंग प्रभावित होते हैं, तब रोगी की तकलीफें बढ़ने लगती हैं। जैसे आंख के प्रभावित होने पर आंखों की रोशनी कम हो जाती है। त्वचा में कभी-कभी लाल रंग के चकत्ते बन जाते हैं। लिवर और तिल्ली का आकार बड़ा हो जाता है।
-कभी-कभी सारकॉइडोसिस से मस्तिष्क और गुर्दे पर भी असर होने लगता है। रोग की चरम अवस्था में हृदय व गुर्दे भी काम करना बंद कर देते हैं और पूरे शरीर में सूजन आ जाती है।
-शरीर में पानी की मात्रा अधिक होने से शरीर का वजन बढ़ जाता है और रोगी चल-फिर भी नहीं पाता। यह बीमारी की अंतिम अवस्था है। वैसे तो यह बीमारी गंभीर नहीं होती है, लेकिन जब गुर्र्दो और मस्तिष्क पर यह प्रभाव डालती है, तब यह लाइलाज बन जाती है।
उपचार
प्रारंभिक अवस्था में अधिकतर रोगियों में बीमारी स्वयं ही समाप्त हो जाती है, लेकिन रोग की अवस्था बढ़ने पर अधिकतर मामलों में दवाओं के नाम पर स्टेरॉयड का प्रयोग लगभग एक वर्ष तक किया जाता है। थोड़ी-सी सावधानी और जानकारी से इस बीमारी को प्रारंभिक अवस्था में ही पहचाना जा सकता है।
(डॉ.अशोक कुमार सिंह
सीनियर पल्मोनोलॉजिस्ट)