ज़हन में ताजा हैं दर्दनाक यादें, आपातकाल का वो काला सच... जब छोटे कमरे में 13 लोगों को बितानी पड़ी थी पूरी रात
यह लेख 1975-77 के आपातकाल को लोकतंत्र का काला अध्याय बताता है, जिसमें लोगों को सामान्य गतिविधियों के लिए भी जेल में डाल दिया गया था। सोनीपत के ललित बत्रा, जो तब नौ साल के थे, को 13 महीने जेल में रहना पड़ा था। सोनीपत के 13 लोगों को 8x8 के कमरे में बंद कर दिया गया था। आपातकाल के दौरान प्रेस पर सेंसरशिप लगी और स्वतंत्रता छीनी गई। यह अनुभव लोकतंत्र की रक्षा के महत्व को दर्शाता है।
जागरण संवाददाता, सोनीपत। देश के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे काला अध्याय माने जाने वाले आपातकाल (1975–77) के दौरान बहुत से लोगों का न केवल दमन किया गया था, यहां तक की महज नारेबाजी करने या सामान्य गतिविधियों में शामिल होने पर ही जेल में ठूंस दिया गया था।
सोनीपत के 13 लोगों को 8x8 के कमरे में डाल दिया गया था, जिससे उन्हें सांस लेना भी दूभर हो गया था। वर्तमान में भाजपा के चुनाव प्रबंधन के प्रदेश संयोजक ललित बत्रा को भी उस समय जेल की यातनाएं सहनी पड़ी थी। वह महज नौ साल के थे और 13 महीने तक जेल में रहे थे।
भाजपा नेता ललित बत्रा बताते हैं कि आपातकाल के उस काले अध्याय को लेकर आज भी उनके ज़हन में दर्दनाक यादें ताजा हैं। वह उस समय नौवीं कक्षा में पढ़ते थे। चुनाव में हार के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को आपातकाल लगा दिया था, जिसका देशभर में विरोध हुआ था। वह भी उस विरोध का हिस्सा बनकर सत्याग्रह में शामिल हुए थे।
उन्होंने बताया कि तत्कालीन जनसंघ के सक्रिय नेताओं द्वारा आपातकाल के विरोध में आवाज उठाई, जिस पर देशभर में हजारों लोगों को जेलों में ठूंसा गया था। इसमें सोनीपत के भी लगभग 40 लोगों को बिना किसी अपराध के 13 महीने तक सलाखों के पीछे रहना पड़ा था।
तत्कालीन भाजपा महामंत्री रामफल कोहली के नेतृत्व में नारेबाजी कर रहे सोनीपत के 13 लोगों के जत्थे को रोहतक की जेल में 8x8 के कमरे में बंद कर दिया गया था। गर्मी, बदबू और दमघोंटू माहौल में उनका सांस लेना भी दूभर हो गया था। सभी 13 लोगों को पूरी रात ऐसे ही काटनी पड़ी थी। अगले दिन उन्हें अदालत में पेश कर दूसरी जगह शिफ्ट किया गया था।
खुद बनाते थे खाना
ललित बत्रा बताते हैं कि उन्हें जेल में सूखा राशन ही दिया जाता था। वह अपना खाना खुद बनाकर खाते थे। हालांकि कुछ स्थानों पर सुनने में आता था कि खाने के नाम पर उन्हें उबली दाल व नमक की रोटी ही दी जाती हैं। एक चटाई पर कई लोगों को लेटकर रात काटनी पड़ती थी। वे कहते हैं कि उस वक्त समझ नहीं आता था कि आखिर हमने किया क्या है, लेकिन आज सोचता हूं तो गर्व होता है कि लोकतंत्र की उस लड़ाई के हम साक्षी रहे हैं।
आपातकाल के साक्षी कुछ लोग आज भी है जीवित
इमरजेंसी के दौरान देशभर में लोकतंत्र की आवाज को दबाने के लिए प्रेस पर सेंसरशिप लगाई गई थी, संविधान को ताक पर रखकर विपक्षी नेताओं को जेल में डाला गया और आमजन की स्वतंत्रता छीन ली गई थी। सोनीपत से गिरफ्तार किए गए अन्य संघ से जुड़े लोगों में सुदेश बजाज, नरेंद्र चराया, शशांक रंधावा, सतीश भूटानी सहित कई अन्य आज भी जीवित हैं।
वहीं, वर्तमान पीढ़ी को लोकतंत्र की कीमत समझाने के लिए इन चश्मदीद लोगों की कहानी ही एक जीवंत दस्तावेज़ हैं। ललित बत्रा कहते हैं कि आज जब देश में स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति के अधिकार को लेकर जागरूकता बढ़ रही है तो ऐसे दौर की यादें हमें चेताती हैं कि लोकतंत्र की रक्षा केवल वोट से नहीं, बल्कि साहस और संघर्ष से होती है। 25 जून की यह तारीख सिर्फ एक दिन नहीं, बल्कि एक सबक है कि अंधकार चाहे जितना गहरा हो, सच्चाई और स्वतंत्रता की लौ बुझाई नहीं जा सकती।
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