Kisan Andolan In Haryana: किसानों के आंदोलन और खूनी संघर्ष ने बदल दी रेवाड़ी की तस्वीर
Kisan Andolan 22 जुलाई 2012 को हरियाणा भूमि अधिग्रहण के विरोध में महापंचायत हुई थी और किसान आंदोलन उग्र हो गया था। किसान-पुलिस टकराव हुआ। वहीं आंदोलन के राजनीतिक सामाजिक व आर्थिक प्रभाव-आंदोलन से भाजपा को शक्ति मिली थी।
रेवाड़ी [महेश कुमार वैद्य]। 22 जुलाई, 2012 का दिन हरियाणा में लंबे समय तक याद रहेगा। कई दिनों से चला आ रहा भूमि अधिग्रहण आंदोलन 10 वर्ष पहले आज ही के दिन उग्र हो गया था। किसानों व पुलिस के बीच हुए संघर्ष के दौरान असामाजिक तत्वों ने कई सरकारी वाहन फूंक दिए गए थे। पुलिस की गोलियों से कई किसान व असामाजिक तत्वों के पथराव से कई पुलिसकर्मी भी घायल हुए थे। उसी खूनी संघर्ष ने क्षेत्र की तस्वीर व तकदीर बदल दी थी।
इस उग्र आंदोलन से अहीरवाल के गढ़ रेवाड़ी जिले में गहरे राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक प्रभाव पड़े थे। आंदोलन के दौरान किए गए भाजपाइयों के वादों के कारण ही मनोहर सरकार ने सत्ता में आने के तुरंत बाद अधिगृहित हो चुकी 3667 एकड़ जमीन वापिस किसानों को लौटाने का ऐतिहासिक फैसला किया था। दिया था। सरकार ने मल्टी माडल लाजिस्टिक हब व औद्योगिक विस्तार के लिए यह जमीन अधिग्रहित की थी।
आंदोलन के राजनीतिक असर
10 वर्ष पूर्व हुए आंदोलन को भाजपा ने पूर्ण समर्थन दिया था। वर्ष 2014 में अहीरवाल में भाजपा की एक तरफा लहर के पीछे कई कारणों में एक कारण यह आंदोलन भी था। भाजपाईयों ने आंदोलन को समर्थन दिया था। भाजपा ने तब कांग्रेस सरकार को जबरन जमीन छीनने के आरोप लगाकर कटघरे में खड़ा कर दिया था। हालांकि मनोहर सरकार ने सत्ता में आने के बाद अधिग्रहित जमीन के लिए मुआवजे का ऐलान कर दिया था, मगर जैसे ही मुआवजा निर्धारण में भेदभाव व जबरन भूमि अधिग्रहण के आरोप लगे, वैसे ही सरकार ने कदम पीछे खींच लिए।
केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह के माध्यम से भी कुछ किसानों ने राज्य सरकार तक जबरन जमीन अधिर्ग्रहीत न करने के वादे की याद दिलाई थी। इसके बाद सत्ता में नए आए मुख्यमंत्री मनोहर ने धुरंधरों को मात देने वाला फैसला लिया। एक झटके में पूरी जमीन अधिग्रहण मुक्त कर दी। आज भाजपाई खुलकर कहते हैं कि उनकी सरकार ने किसानों की एक इंच जमीन उनकी मर्जी के खिलाफ नहीं ली।
सामाजिक व आर्थिक प्रभावअधिग्रहण प्रक्रिया निरस्त होते ही रेवाड़ी में बनने वाला मल्टी माडल लाजिस्टक महेंद्रगढ़ जिले में चला गया। यहां न तो हब बना और न यहां पर औद्योगिक विस्तार हुआ। राजनीतिक रूप से भाजपा बेशक लाभ में रही, मगर इससे सामाजिक व आर्थिक असर पड़ा। अगर जमीन वापिस किसानों को नहीं जाती तो यहां कई बड़े उद्योग व बड़ा लोजिस्टक हब बन चुका होता। हजारों नए रोजगार सृजित होते। वर्ष 2011 में उप्र के गांव भट्ठा परसौल में भी अधिग्रहण के विरोध में आंदोलन हुए थे।
वर्ष 2013 में उस आंदोलन की बदौलत तत्कालीन मनमोहन सरकार ने अधिग्रहण कानून को किसानों के हक में इतना लचीला बना दिया था कि अधिग्रहण ही आसान नहीं रह गया था। हालांकि मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद इसमें कुछ बदलाव हुए हैं, मगर मनोहर सरकार अधिग्रहण के मामले में कंजूस ही रही। इसके परिणामस्वरूप नए आवासीय सेक्टर विकसित नहीं हुए और आवासीय योजनाएं पूरी तरह निजी क्षेत्र के हाथों में पहुंच गई।
वर्ष 2012 में कब, कहां और कैसे हुआ था
- 14 जून को आसलवास में डीटीपी की टीम ने तोड़फोड़ की।
- 14 जून को ही किसानों के खिलाफ मामले दर्ज हुए।
- 17 जून को किसानों ने पहली बार धरना दिया। मुकदमे वापिस लेने की मांग उठी।
- 20 जून को आसलवास के निकट किसान महापंचायत हुई। प्रशासन के आश्वासन पर धरना खत्म।
- 10 जुलाई को अधिग्रहण के विरोध में फिर महापंचायत। किसान नेता राकेश टिकैत पहुंचे।
- 11 जुलाई को जिला सचिवालय पर अनिश्चितकालीन धरना शुरू।
- 16 जुलाई को जिला सचिवालय पर भारी तोडफोड़।
- 22 जुलाई को किसानों ने 16 जुलाई की घटना के विरोध में नेशनल हाइवे पर आसलवास गांव के निकट महापंचायत की।
- 22 जुलाई को महापंचायत के बाद पुलिस व किसानों के बीच खूनी संघर्ष हुआ। करोड़ों की संपत्ति राख। दोनों ओर से कई घायल।
- 25 जुलाई को जस्टिस इकबाल सिंह आयोग का गठन किया। जांच रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं हुई।
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