हरियाणा के युवाओं ने थामी इतिहास की डोर, बचा रहे दम तोड़ती ढोकरा कला
हरियाणा के युवाओं ने छत्तीसगढ़ की पारंपरिक कला ढोकरा को बचाने में लगे हैं। हड़प्पा सभ्यता से यह पारंपरिक शिल्प जोड़ता है। हरियाणा के करनाल में छत्तीसगढ़ी कलाकारों ने प्रशिक्षण दिया। युवाओं ने कड़ी मेहनत से सुंदर मूर्तियां तैयार की।
पानीपत/करनाल, [पवन शर्मा]। हरियाणा के युवाओं ने छत्तीसगढ़ की पारंपरिक कला ढोकरा को बचाने का संकल्प लिया है। ढोकरा में तांबा, जस्ता, टिन और पीतल आदि धातुओं के मिश्रण की ढलाई के साथ प्राचीन समय में प्रचलित मोम काङ्क्षस्टग तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है, जिससे विविध प्रकार की मूर्तियां जीवंत रूप लेती हैं। करनाल में छात्र-छात्राओं को इस मिटती कला के बारे में पता चला तो उन्होंने छत्तीसगढ़ के कलाकारों को यहां आमंत्रित करके एक माह तक तमाम बारीकियां सीखीं। यहां मूर्तियों से लेकर ज्वैलरी तक के सुंदर नमूने तैयार किए। उन्होंने संकल्प लिया कि दम तोड़ती यह कला बचाने के लिए पुरजोर प्रयास करेंगे। संस्थान प्रबंधन ने भी इसमें पूर्ण सहयोग का भरोसा दिलाया है।
ढोकरा प्राचीन हस्तशिल्प कला है, जिसका प्रचलन मुख्यत: छत्तीसगढ़ और झारखंड सरीखे प्रांतों में है। जागरण से विशेष वार्ता में छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के एकताल गांव निवासी धरम व मदनपाल बताते हैं कि करनाल के बुद्धा ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस में आयोजित एक माह की विशेष कार्यशाला में प्रशिक्षण देने के बाद उन्होंने युवाओं से सुंदर मूर्तियां तैयार कराई, जिनमें प्रकृति के विविध स्वरूप जीवंत हो उठे। वे चाहते हैं इन युवाओं के जरिए वे देश-विदेश तक अपने हुनर की चमक बिखेर सकें।
इतिहास से पुराना नाता
ये शिल्पकार बताते हैं कि ढोकरा हड़प्पा सभ्यता की पारंपरिक शिल्पकला है, जिसका अस्तित्व अब छत्तीसगढ़ के अलावा झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडि़सा व आंध्र प्रदेश के कुछ आदिवासी इलाकों में ही बचा है। इसमें पुरानी मोम ढलाई तकनीक से मूर्तियां बनाते हैं। दरअसल, यह मूर्ति बनाने की ऐसी आरंभिक कला है, जिसमें तांबा, जस्ता और रांगा यानि टीन सरीखे अलौह अयस्क इस्तेमाल होते हैं। करीब चार हजार वर्ष पुरानी इस कला में धातु को कच्ची भट्टियों में उच्च तापमान पर गर्म किया जाता है और फिर धीरे-धीरे ठंडा करते हैं। इसके बाद मूर्ति को मनचाहा आकार दिया जाता है।
दो तरह से होती है ढलाई
ढोकरा कला में अलग अलग क्षेत्रों में उपलब्ध कच्चे माल का प्रयोग होता है। निर्माण की तकनीक कमोबेश एक जैसी रहती है। शिल्पकार मिट्टी के सांचे में पहले मोम का ढांचा बनाते हैं, जिसे हटाकर उसकी जगह तांबा या पीतल पिघलाकर द्रव्य डाला जाता है। पारंपरिक खाली ढलाई का चलन मध्य और पूर्वी भारत में है जबकि ठोस ढलाई दक्षिण भारत में पसंद की जाती है।
गांव-देहात में अच्छी मांग
शिल्पकार धरम ने बताया कि दक्षिण छत्तीसगढ़ में वे कांसे की मूर्तियां बनाते हैं। यहां मुख्यत: सांड या बैल की मूूर्तियां बहुतायत से तैयार की जाती हैं, जिनकी गांव देहात में अच्छी मांग है। इसके अलावा आदिवासी काल की प्रतीकात्मक खासी लंबी मानव आकृतियों सहित ङ्क्षहदू देवी-देवताओं, प्रकृति, पशु-पक्षियों की मूर्तियां भी बनाते हैं। अन्य राज्यों में स्थानीय मांग के अनुरूप मूर्तियां बनती हैं।
देश-विदेश तक पहुंचाएंगे कला
करनाल में इन कलाकारों की कार्यशाला लगाकर छात्र-छात्राओं को इस कला से जोडऩे में अहम भूमिका निभाने वाले बुद्धा ग्रुप ऑफ इंस्टीट््यूशंस के निदेशक नितीश गुप्ता ने बताया कि इस प्राचीन कला को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुनर्जीवित करने के लिए ही यह कदम उठाया। इन कलाकारों को नई तकनीक से जोड़ेंगे। इनके उत्पादों को संस्थान के युवाओं के जरिए देश-विदेश तक पहुंचाने की भी तैयारी है। समन्वित प्रयासों के जरिए इस कला और इससे जुड़े कलाकारों को भरपूर प्रोत्साहन दिया जाएगा।