हरियाणा में जिंदा है मराठों का शौर्य, सदाशिव राव भाऊ की याद में पानीपत में बसा है भाऊपुर
हरियाणवी गीतों में भी भाऊ। पानीपत में भाऊपुर गांव और रोहतक के सांघी में भाऊ का मंदिर। रोहतक के सांघी गांव में सदाशिवराव भाऊ की पूजा की जाती है। उनकी याद में हर वर्ष मेला लगता है। भाऊ ने यहां पर गहरी खंदकें बनाकर पठानों को मात दी थी।

पानीपत [रवि धवन]। 1761 की जंग में मराठों के सेनापति थे सदाशिव राव भाऊ। नाना साहब यानी पेशवा प्रधानमंत्री के चचेरे भाई थे भाऊ। उन्हीं के नाम से रोहतक रोड पर इसराना के पास गांव बसा है भाऊपुर। यहां के बुजुर्ग कहते हैं कि भाऊ राजा की सेना जब दिल्ली से पानीपत आ रही थी, तब उनकी एक टुकड़ी इसी क्षेत्र के आसपास रुकी थी। भाऊ की सेना ने यहां कुआं खुदवाया था। कुआं आज भी यहां है। हरियाणवी गीत तक में भाऊ हैं। इतिहासकार कहते हैं कि भाऊ जंग में ही शहीद हो गए थे। पर रोहतक के सांघी गांव में भाऊ का मंदिर भी बना हुआ है। यहां जनमानस का कहना है कि जंग में घायल हुए भाऊ यहीं रुके थे। गांव वालों की आस्था का केंद्र बन गया है अब यहां पर लाधीवाला डेरा।
सांघी में होती है सदाशिवराव भाऊ की पूजा
रोहतक के सांघी गांव में सदाशिवराव भाऊ की पूजा की जाती है। उनकी याद में हर वर्ष मेला लगता है। महाराष्ट्र के लोगों को जब भाऊ के मंदिर का पता चलता है तो वे यहां माथा टेकने जरूर आते हैं। ये मानते हुए भी भाऊ पानीपत में शहीद हो गए थे, तब भी मंदिर में आस्था की वजह से जाते हैं।
साधु के वेश में सांघी पहुंचे थे भाऊ
सांघी के लोगों का कहना है कि भाऊ साधु के वेश में यहां पहुंचे थे। लाधीवाला डेरे के संचालक सुंदर नाथ ने जागरण से बातचीत में कहा, उनके 11 गुरु यहां समाधि ले चुके हैं। उन्होंने सुना है कि राजा भाऊ गंभीर रूप से घायल हो गए थे। सांघी पहुंचे और यहीं पर तपस्या की थी। डेरे के सेवक सतबीर का कहना है कि उनके पूर्वजों ने बताया कि भाऊ सोनीपत से होते हुए रूखी गांव में पहुंचे। वहां अकाल पड़ा हुआ था। तब वे सांघी में आए। यहां जंगल था। गांव के लोगों ने उन्हें यहां ठहराया। भाऊ ने डेरा बनाया। लाधवाला ने ये जगह उपलब्ध कराई थी, इसलिए इसका नाम लाधीवाला डेरा रखा। सतबीर के अनुसार, भाऊ ने यहां पर भी जवानों की फौज तैयार कर दी थी। गहरी खंदकें बनाकर पठानों को मात दी थी।
भाऊ के नाम का लगता है मेला
सांघी में हर वर्ष माघ माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को बाबा बिशादे का मेला लगता है। मेले में महाराष्ट्र से भी लोग आते हैं। 8 सितंबर, 2013 को बाबा भाऊनाथ की मूर्ति की स्थापना की गई थी। कहते हैं कि भाऊ 22 जनवरी, 1761 को गांव सांघी में आए थे।
जाट बहुल गांव है भाऊपुर
दिलचस्प बात ये है कि भाऊपुर गांव में जाट बहुल आबादी है। अलग-अलग जाति, गोत्र के लोग रहते हैं। पर रोड़ बिरादरी के लोग यहां नहीं हैं। जिस गांव का नाम भाऊ पर है, वहां रोड़ बिरादरी का कोई ग्रामीण नहीं रहता। दरअसल, जाटों की भाऊ और मराठों से सहानुभूति रही थी। वे भी दिल से चाहते थे कि भाऊ जीतें। अब्दाली हारे। भाऊ हार गए पर जाटों की यादों में वो सदा-सदा के लिए जीत गए। आसपास के गांव जरूर रोड़ बहुल हैं।
भाऊ का गीत...अटक नदी मेरी पायगा घोड़ों के जल प्यावे
भाऊ की मां अपने बेटे को जंग पर जाने से पहले रोकती हैं। पूछती हैं- तू क्या शाह से लड़ेगा मन में गर्वाया। बड़े राव दत्ता पटेल का सिर तोड़ भगाया। शुकताल पे भुरटिया ढूंढा न पाया। बेटा, दक्खिन बैठ करो राज, मेरी बहुत ही माया।
अर्थात - बेटा, अब्दाली को हरा सकोके, यह अहंकार अपने मन से निकाल दो। जानते हो न, शुक्रताल पर दत्ताजी की गर्दन उतारकर उसने कैसी दुर्दशा कर दी थी।
इस पर भाऊ कहते हैं, भाऊ माता से कहे एक अर्ज सुनावे। कहे कहाणी बावरी क्यों हमें डरावे। मेरा नवलाख नेज्या दखनी कोण सामने आवे। सूर्य के सुन के मसक ले जस सावर गावे। अटक नदी मेरी पायगा घोड़ों के जल प्यावे। तोप कड़क के खुणे देश गणियर गर्जावे। दखन तो सोई आवेंगे जिन्होंने हरवाले।
अर्थात- मां, क्यों मेरी राह रोक रही हो। किसलिए मुझे इतना डरा रही हो। मैं अपने घोड़ों को अटक नदी का पानी पिलाकर आऊंगा। अपनी शक्तिशाली तोपों की मार से सभी शत्रुओं के छक्के छुड़ा दूंगा। दक्षिण सकुशल वापस आऊंगा ही। साथ में गिलचा को पूरा तबाह कर आऊंगा।
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