पाथरी माता के जयकारे, हजारों श्रद्धालु पहुंचे
सुनील मराठा थर्मल शहर से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांव पाथरी में सूरज की तेज

सुनील मराठा, थर्मल
शहर से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांव पाथरी में सूरज की तेज गर्मी और हजारों लोगों के पैरों के नीचे से उठती धूल भी माता रानी की आस्था के आगे कमजोर प्रतीत हो रही थी। मौका था चैत्र माह के बुधवार को लगने वाले पाथरी वाली माता के मेले का। पाथरी गांव में मौजूद इस मंदिर का संबंध महाभारत काल से भी बताया जाता है। 48 कोस तीर्थों में मौजूद चार यक्षों में से एक यक्ष यहीं माना जाता है। माता पाथरी वाली को माता धूतनी के नाम से भी जाना जाता है।
मेले में हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, यूपी, दिल्ली व महाराष्ट्र सहित कई राज्यों के हजारों श्रद्धालु पहुंचे। मेले में मंगलवार रात्रि 10 बजे श्रद्धालुओं की भीड़ जुटनी शुरू हो गई थी। रात्रि 12:00 बजे से पूजा शुरू हुई मेले में बच्चों के खिलौने, झूले व खाने की स्टाल लगी हुई थी।
नवविवाहित जोड़े करते हैं पूजा
मान्यता अनुसार शादी के बाद नवविवाहित जोड़े के साथ यहां पर माथा टेकने जरूर पहुंचते हैं। इसके अलावा बच्चे के जन्म उपरांत पहली बार यहां बालों का मुंडन भी कराया जाता है। श्रद्धालु प्रसाद के तौर पर गुलगुले व पुड़े का भोग लगाते हैं। पाथरी वाली माता के बारे दंतकथा
पाथरी वाली माता के विषय मे कुछ दंत कथाएं प्रचलित हैं। लोकगीतों और लोक मान्यताओं के अनुसार माता पाथरी का जन्म गौड़ बंगाल के रहने वाले सोहन के घर में हुआ था। पंडित जब नामाकरण के लिए इनकी मस्तक रेखा देखने लगे तो यह शक्तिरूप हो अट्टहास कर हंसने लगी। नवजात कन्या को अट्टहास करता देख पंडित ने अनिष्टकारी संबोधित करके कुएं मे फिकवा दिया। जहां नागे गुरु ने इनको कुएं से बाहर निकाला। शक्ति ने नागे गुरु से टक्कर ली और ईश्वर की प्रेरणा से नागे गुरुजी ने इनको एक डिब्बी मे बंद करके अपनी जटाओं मे स्थान दिया। इन देवी ने नागे गुरु की शक्ति से परिचित होकर उनकों अपने गुरु जी के रूप में धारण किया।
नत्थू भक्त की कथा
कथा के अनुसार सींक-पाथरी गांवों के नत्थू और भरतू दो युवकों ने नागे गुरु जी की बहुत सेवा की। जिससे प्रसन्न होकर नागे गुरु ने वह डिब्बी नत्थू को देते हुए कहा इसको संभालकर रखना। एक दिन गुरु जी के प्रस्थान के पश्चात नत्थू ने डिब्बी को खोला तो माता प्रकट हो गईं। नत्थू डर गया कितु बाद में शक्ति के रहस्य को जानकर नत्थू और भरतू माता की सेवा करने लगे। गांव के जमींदार सिघा द्वारा जाल के पेड़ के नीचे माता का स्थान बनवाया गया। तभी से माता की पूजा निरंतर होती आ रही है।

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