हमेशा से आन, बान और शान का प्रतीक रही पगड़ी
लोकजीवन में पगड़ी की विशेष महत्ता है। इसका इतिहास हजारों वर्ष पुराना है।
लोकजीवन में पगड़ी की विशेष महत्ता है। इसका इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। पगड़ी जहा एक ओर लोक सास्कृतिक परंपराओं से जुड़ी हुई है, वहीं पर सामाजिक सरोकारों से भी इसका गहरा नाता है। हरियाणा के खादर, बागर, बागड़, अहीरवाल, बृज, मेवात, कौरवी क्षेत्र सभी क्षेत्रों में पगड़ी की विविधता देखने को मिलती है।
प्राचीन काल में सिर को सुरक्षित ढंग से रखने के लिए पगड़ी का प्रयोग किया जाने लगा। पगड़ी को सिर पर धारण किया जाता है। इसलिए इस परिधान को सभी परिधानों में सर्वोच्च स्थान मिला। पगड़ी को लोकजीवन में पग, पाग, पग्गड़, पगड़ी, पगमंडासा, साफा, पेचा, फेंटा, खण्डवा, खण्डका, आदि नामों से जाना जाता है। जबकि साहित्य में पगड़ी को रूमालियो, परणा, शीशकाय, जालक, मुरैठा, मुकुट, कनटोपा, मदील, मोलिया और चिंदी आदि नामों से जाना जाता है। वास्तव में पगड़ी का मूल ध्येय शरीर के ऊपरी भाग (सिर) को सर्दी, गर्मी, धूप, लू, वर्षा आदि विपदाओं से सुरक्षित रखना रहा है, किंतु धीरे-धीरे इसे सामाजिक मान्यता के माध्यम से मान और सम्मान के प्रतीक के साथ जोड़ दिया गया, क्योंकि पगड़ी सिरोधार्य है।
हजारों वर्ष की यात्रा में पगड़ी ने अनेक रंग, रूप, आकार, प्रकार बदले किन्तु मूलरूप में कोई परिवर्तन नहीं आया। इसकी शुरुआत भगवान शिव की जटाओं से होती है। शिव अपने केशों को पगड़ी आकार रूप में बाधते थे। संभवत: आदि देवता शिव से ही प्रेरणा पाकर पगड़ी को बाधने की शुरुआत हुई। आरम्भिक काल में शिव की परम्परा से जुड़े हुए साधु-संत अपने केशों को पगड़ी-आकार में बाधने लगे। समाज में जब वर्ग-व्यवस्था की स्थापना हुई, तो पुरुषों ने केश कटवाने शुरू कर दिए, किंतु आदिकाल से चली आ रही पगड़ी की परम्परा ने केशों के स्थान पर कपड़े की पगड़ी के रूप धारण कर लिया। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर पगड़ी का परिधान तो सिंधु घाटी की सभ्यता से भी पहले था। उस समय नर और नारी दोनों ही पगड़ी पहनते थे। इस युग में इसे 'उष्राशि' के नाम से पुकारा जाता था। उस समय पगड़ी मूलत: सूत्ती कपड़े, रेज्जे, रंगीन रेशम की बनी होती थी। रामायण काल में पगड़ी को विशेष महत्ता मिली। इसी काल में पगड़ी को सम्मान के साथ जोड़ दिया गया। महाभारत काल में भी यह परम्परा ज्यों की त्यों बनी रही। शकों के समय में भी पगड़ी का चलन रहा, किंतु इस युग में लोगों ने सुरक्षा की दृष्टि से पगड़ी के स्थान पर चमड़े का टुकड़ा सिर पर रखना शुरू कर दिया। शकों और कुषाणों के बीच जो युद्ध हुआ, उसमें कुषाण विजयी रहे, किंतु वे शकों के सिर पर पगड़ीनुमा चमड़े को देखकर स्तब्ध रहे। अमादलपुर (सुघ) पुरातात्विक स्थल से खुदाई से निकली कुषाणकालीन मिट्टी की मूर्तियों पर बंधी हुई पगडिय़ा इसका पुख्ता प्रमाण हैं। इस प्रकार पगड़ी बाधने की यह परम्परा निरंतर आगे बढ़ती रही और आगे चलकर हूण, द्राविड़, मंगोलियन युग तक चली आई। भक्तिकाल में पगड़ी को विशेष दजऱ्ा मिला और इसका सम्बन्ध धर्मगुरुओं से जुड़ गया।
मुगलकाल में पगड़ी को विशेष सम्मान मिला और इसके ऊपर हीरे और मोतियों की रत्नों से जड़ी मालाएं तथा कलगिया लगाई जाने लगी। इस काल में पगडिय़ा भिन्न-भिन्न रूप धारण करने लगी। सिर पर पहले टोपी या कुल्लाह पहने जाने लगा और उसके ऊपर पगड़ी बाधी जाने लगी। पगड़ी के ऊपर खड़े हुए भाग को तुर्राह की संज्ञा भी दी गई। गर्मियों में कुल्लाह गेहूं के तिनकों से तथा सर्दियों में मोटे कपड़े से बनाया जाने लगा। इस काल में पगड़ी ने अनेक रूप धारण किए। राजा, सेनापति, युवराज सभी अलग-अलग तरह की पगडिय़ा बाधने लगे। साधारण जनता सूत्ती कपड़े की पगड़ी बाधने लगी। आगे चलकर जब भारत में अंग्रेज लोग आए तो उन्होंने पगड़ी के स्थान पर हैट का प्रयोग शुरु किया, किंतु पारम्परिक पगड़ी ने हार नहीं मानी। सिख गुरुओं ने आगे चलकर पगड़ी की परम्परा को धर्म के साथ जोड़ा। लोकजीवन में इसका संबंध संस्कारों से भी जुड़ा हुआ है। यहा पर जाति के आधार पर भी पगडिय़ों के अलग-अलग रंग-रूप तथा आकार देखने को मिलते हैं। देश की आजादी के समय पगड़ी संभाल जट्टा गीत के माध्यम से देशभक्ति समाज की लाज़ बचाने का संदेश दिया गया, इससे भला कौन परिचित नहीं है? हरियाणा में धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र, जाति के आधार पर भी पगड़ी बाधने की परम्परा रही है। हिन्दु पगड़ी, मुस्लिम पगड़ी, सिक्ख पगड़ी, आर्यसमाजी पगड़ी, ब्रज पगड़ी, अहीरवाली पगड़ी, मेवाती पगड़ी, खाद्दरी पगड़ी, बागड़ी पगड़ी, बागड़ी पगड़ी, पंजाबी तूर्रेदार पगड़ी, गुज्जर पगड़ी, राजपूती पगड़ी, बिश्रोई पगड़ी, मारवाड़ी पगड़ी, रोड़ों की पगड़ी, बाणियों की पगड़ी, सुनारी पगड़ी, पाकिस्तानी की पगड़ी व मुल्तानी पगड़ी आदि का प्रचलन रहा है। लोकजीवन में परिवार के मुखिया द्वारा पगड़ी पहनने की परम्परा रही है। इसी प्रकार ठोल़े के मुखिया, पट्टी के मुखिया, पान्ने के मुखिया, गाव, गोत्र, सतगामा, अठगामा, बारहा, खाप तथा पाल़ के चौधरी द्वारा भी हरियाणवी पगड़ी बाधने की परम्परा का पालन करते रहे हैं। संशोधित : आन-बान-शान रही पगड़ी लोक सांस्कृतिक परंपराओं से पगड़ी का गहरा नाता डॉ. महासिंह पूनिया
प्रभारी, धरोहर हरियाणा संग्रहालय,
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय लोकजीवन में पगड़ी की विशेष महत्ता है। इसका इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। पगड़ी जहा एक ओर लोक सास्कृतिक परंपराओं से जुड़ी हुई है, वहीं पर सामाजिक सरोकारों से भी इसका गहरा नाता है। हरियाणा के खादर, बागर, बागड़, अहीरवाल, बृज, मेवात, कौरवी क्षेत्र सभी क्षेत्रों में पगड़ी की विविधता देखने को मिलती है।
प्राचीन काल में सिर को सुरक्षित ढंग से रखने के लिए पगड़ी का प्रयोग किया जाने लगा। पगड़ी को सिर पर धारण किया जाता है। इसलिए इस परिधान को सभी परिधानों में सर्वोच्च स्थान मिला। पगड़ी को लोकजीवन में पग, पाग, पग्गड़, पगड़ी, पगमंडासा, साफा, पेचा, फेंटा, खण्डवा, खण्डका, आदि नामों से जाना जाता है। जबकि साहित्य में पगड़ी को रूमालियो, परणा, शीशकाय, जालक, मुरैठा, मुकुट, कनटोपा, मदील, मोलिया और चिंदी आदि नामों से जाना जाता है। वास्तव में पगड़ी का मूल ध्येय शरीर के ऊपरी भाग (सिर) को सर्दी, गर्मी, धूप, लू, वर्षा आदि विपदाओं से सुरक्षित रखना रहा है, किंतु धीरे-धीरे इसे सामाजिक मान्यता के माध्यम से मान और सम्मान के प्रतीक के साथ जोड़ दिया गया, क्योंकि पगड़ी सिरोधार्य है।
हजारों वर्ष की यात्रा में पगड़ी ने अनेक रंग, रूप, आकार, प्रकार बदले किन्तु मूलरूप में कोई परिवर्तन नहीं आया। इसकी शुरुआत भगवान शिव की जटाओं से होती है। शिव अपने केशों को पगड़ी आकार रूप में बाधते थे। संभवत: आदि देवता शिव से ही प्रेरणा पाकर पगड़ी को बाधने की शुरुआत हुई। आरम्भिक काल में शिव की परम्परा से जुड़े हुए साधु-संत अपने केशों को पगड़ी-आकार में बाधने लगे। समाज में जब वर्ग-व्यवस्था की स्थापना हुई, तो पुरुषों ने केश कटवाने शुरू कर दिए, किंतु आदिकाल से चली आ रही पगड़ी की परम्परा ने केशों के स्थान पर कपड़े की पगड़ी के रूप धारण कर लिया। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर पगड़ी का परिधान तो सिंधु घाटी की सभ्यता से भी पहले था। उस समय नर और नारी दोनों ही पगड़ी पहनते थे। इस युग में इसे 'उष्राशि' के नाम से पुकारा जाता था। उस समय पगड़ी मूलत: सूत्ती कपड़े, रेज्जे, रंगीन रेशम की बनी होती थी। रामायण काल में पगड़ी को विशेष महत्ता मिली। इसी काल में पगड़ी को सम्मान के साथ जोड़ दिया गया। महाभारत काल में भी यह परम्परा ज्यों की त्यों बनी रही। शकों के समय में भी पगड़ी का चलन रहा, किंतु इस युग में लोगों ने सुरक्षा की दृष्टि से पगड़ी के स्थान पर चमड़े का टुकड़ा सिर पर रखना शुरू कर दिया। शकों और कुषाणों के बीच जो युद्ध हुआ, उसमें कुषाण विजयी रहे, किंतु वे शकों के सिर पर पगड़ीनुमा चमड़े को देखकर स्तब्ध रहे। अमादलपुर (सुघ) पुरातात्विक स्थल से खुदाई से निकली कुषाणकालीन मिट्टी की मूर्तियों पर बंधी हुई पगडिय़ा इसका पुख्ता प्रमाण हैं। इस प्रकार पगड़ी बाधने की यह परम्परा निरंतर आगे बढ़ती रही और आगे चलकर हूण, द्राविड़, मंगोलियन युग तक चली आई। भक्तिकाल में पगड़ी को विशेष दजऱ्ा मिला और इसका सम्बन्ध धर्मगुरुओं से जुड़ गया।
मुगलकाल में पगड़ी को विशेष सम्मान मिला और इसके ऊपर हीरे और मोतियों की रत्नों से जड़ी मालाएं तथा कलगिया लगाई जाने लगी। इस काल में पगडिय़ा भिन्न-भिन्न रूप धारण करने लगी। सिर पर पहले टोपी या कुल्लाह पहने जाने लगा और उसके ऊपर पगड़ी बाधी जाने लगी। पगड़ी के ऊपर खड़े हुए भाग को तुर्राह की संज्ञा भी दी गई। गर्मियों में कुल्लाह गेहूं के तिनकों से तथा सर्दियों में मोटे कपड़े से बनाया जाने लगा। इस काल में पगड़ी ने अनेक रूप धारण किए। राजा, सेनापति, युवराज सभी अलग-अलग तरह की पगडिय़ा बाधने लगे। साधारण जनता सूत्ती कपड़े की पगड़ी बाधने लगी। आगे चलकर जब भारत में अंग्रेज लोग आए तो उन्होंने पगड़ी के स्थान पर हैट का प्रयोग शुरु किया, किंतु पारम्परिक पगड़ी ने हार नहीं मानी। सिख गुरुओं ने आगे चलकर पगड़ी की परम्परा को धर्म के साथ जोड़ा। लोकजीवन में इसका संबंध संस्कारों से भी जुड़ा हुआ है। यहा पर जाति के आधार पर भी पगडिय़ों के अलग-अलग रंग-रूप तथा आकार देखने को मिलते हैं। देश की आजादी के समय पगड़ी संभाल जट्टा गीत के माध्यम से देशभक्ति समाज की लाज़ बचाने का संदेश दिया गया, इससे भला कौन परिचित नहीं है? हरियाणा में धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र, जाति के आधार पर भी पगड़ी बाधने की परम्परा रही है। हिन्दु पगड़ी, मुस्लिम पगड़ी, सिक्ख पगड़ी, आर्यसमाजी पगड़ी, ब्रज पगड़ी, अहीरवाली पगड़ी, मेवाती पगड़ी, खाद्दरी पगड़ी, बागड़ी पगड़ी, बागड़ी पगड़ी, पंजाबी तूर्रेदार पगड़ी, गुज्जर पगड़ी, राजपूती पगड़ी, बिश्रोई पगड़ी, मारवाड़ी पगड़ी, रोड़ों की पगड़ी, बाणियों की पगड़ी, सुनारी पगड़ी, पाकिस्तानी की पगड़ी व मुल्तानी पगड़ी आदि का प्रचलन रहा है। लोकजीवन में परिवार के मुखिया द्वारा पगड़ी पहनने की परम्परा रही है। इसी प्रकार ठोल़े के मुखिया, पट्टी के मुखिया, पान्ने के मुखिया, गाव, गोत्र, सतगामा, अठगामा, बारहा, खाप तथा पाल़ के चौधरी द्वारा भी हरियाणवी पगड़ी बाधने की परम्परा का पालन करते रहे हैं। संशोधित : आन-बान-शान रही पगड़ी लोक सांस्कृतिक परंपराओं से पगड़ी का गहरा नाता डॉ. महासिंह पूनिया
प्रभारी, धरोहर हरियाणा संग्रहालय,
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय लोकजीवन में पगड़ी की विशेष महत्ता है। इसका इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। पगड़ी जहा एक ओर लोक सास्कृतिक परंपराओं से जुड़ी हुई है, वहीं पर सामाजिक सरोकारों से भी इसका गहरा नाता है। हरियाणा के खादर, बागर, बागड़, अहीरवाल, बृज, मेवात, कौरवी क्षेत्र सभी क्षेत्रों में पगड़ी की विविधता देखने को मिलती है।
प्राचीन काल में सिर को सुरक्षित ढंग से रखने के लिए पगड़ी का प्रयोग किया जाने लगा। पगड़ी को सिर पर धारण किया जाता है। इसलिए इस परिधान को सभी परिधानों में सर्वोच्च स्थान मिला। पगड़ी को लोकजीवन में पग, पाग, पग्गड़, पगड़ी, पगमंडासा, साफा, पेचा, फेंटा, खण्डवा, खण्डका, आदि नामों से जाना जाता है। जबकि साहित्य में पगड़ी को रूमालियो, परणा, शीशकाय, जालक, मुरैठा, मुकुट, कनटोपा, मदील, मोलिया और चिंदी आदि नामों से जाना जाता है। वास्तव में पगड़ी का मूल ध्येय शरीर के ऊपरी भाग (सिर) को सर्दी, गर्मी, धूप, लू, वर्षा आदि विपदाओं से सुरक्षित रखना रहा है, किंतु धीरे-धीरे इसे सामाजिक मान्यता के माध्यम से मान और सम्मान के प्रतीक के साथ जोड़ दिया गया, क्योंकि पगड़ी सिरोधार्य है।
हजारों वर्ष की यात्रा में पगड़ी ने अनेक रंग, रूप, आकार, प्रकार बदले किन्तु मूलरूप में कोई परिवर्तन नहीं आया। इसकी शुरुआत भगवान शिव की जटाओं से होती है। शिव अपने केशों को पगड़ी आकार रूप में बाधते थे। संभवत: आदि देवता शिव से ही प्रेरणा पाकर पगड़ी को बाधने की शुरुआत हुई। आरम्भिक काल में शिव की परम्परा से जुड़े हुए साधु-संत अपने केशों को पगड़ी-आकार में बाधने लगे। समाज में जब वर्ग-व्यवस्था की स्थापना हुई, तो पुरुषों ने केश कटवाने शुरू कर दिए, किंतु आदिकाल से चली आ रही पगड़ी की परम्परा ने केशों के स्थान पर कपड़े की पगड़ी के रूप धारण कर लिया। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर पगड़ी का परिधान तो सिंधु घाटी की सभ्यता से भी पहले था। उस समय नर और नारी दोनों ही पगड़ी पहनते थे। इस युग में इसे 'उष्राशि' के नाम से पुकारा जाता था। उस समय पगड़ी मूलत: सूत्ती कपड़े, रेज्जे, रंगीन रेशम की बनी होती थी। रामायण काल में पगड़ी को विशेष महत्ता मिली। इसी काल में पगड़ी को सम्मान के साथ जोड़ दिया गया। महाभारत काल में भी यह परम्परा ज्यों की त्यों बनी रही। शकों के समय में भी पगड़ी का चलन रहा, किंतु इस युग में लोगों ने सुरक्षा की दृष्टि से पगड़ी के स्थान पर चमड़े का टुकड़ा सिर पर रखना शुरू कर दिया। शकों और कुषाणों के बीच जो युद्ध हुआ, उसमें कुषाण विजयी रहे, किंतु वे शकों के सिर पर पगड़ीनुमा चमड़े को देखकर स्तब्ध रहे। अमादलपुर (सुघ) पुरातात्विक स्थल से खुदाई से निकली कुषाणकालीन मिट्टी की मूर्तियों पर बंधी हुई पगडिय़ा इसका पुख्ता प्रमाण हैं। इस प्रकार पगड़ी बाधने की यह परम्परा निरंतर आगे बढ़ती रही और आगे चलकर हूण, द्राविड़, मंगोलियन युग तक चली आई। भक्तिकाल में पगड़ी को विशेष दजऱ्ा मिला और इसका सम्बन्ध धर्मगुरुओं से जुड़ गया।
मुगलकाल में पगड़ी को विशेष सम्मान मिला और इसके ऊपर हीरे और मोतियों की रत्नों से जड़ी मालाएं तथा कलगिया लगाई जाने लगी। इस काल में पगडिय़ा भिन्न-भिन्न रूप धारण करने लगी। सिर पर पहले टोपी या कुल्लाह पहने जाने लगा और उसके ऊपर पगड़ी बाधी जाने लगी। पगड़ी के ऊपर खड़े हुए भाग को तुर्राह की संज्ञा भी दी गई। गर्मियों में कुल्लाह गेहूं के तिनकों से तथा सर्दियों में मोटे कपड़े से बनाया जाने लगा। इस काल में पगड़ी ने अनेक रूप धारण किए। राजा, सेनापति, युवराज सभी अलग-अलग तरह की पगडिय़ा बाधने लगे। साधारण जनता सूत्ती कपड़े की पगड़ी बाधने लगी। आगे चलकर जब भारत में अंग्रेज लोग आए तो उन्होंने पगड़ी के स्थान पर हैट का प्रयोग शुरु किया, किंतु पारम्परिक पगड़ी ने हार नहीं मानी। सिख गुरुओं ने आगे चलकर पगड़ी की परम्परा को धर्म के साथ जोड़ा। लोकजीवन में इसका संबंध संस्कारों से भी जुड़ा हुआ है। यहा पर जाति के आधार पर भी पगडिय़ों के अलग-अलग रंग-रूप तथा आकार देखने को मिलते हैं। देश की आजादी के समय पगड़ी संभाल जट्टा गीत के माध्यम से देशभक्ति समाज की लाज़ बचाने का संदेश दिया गया, इससे भला कौन परिचित नहीं है? हरियाणा में धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र, जाति के आधार पर भी पगड़ी बाधने की परम्परा रही है। हिन्दु पगड़ी, मुस्लिम पगड़ी, सिक्ख पगड़ी, आर्यसमाजी पगड़ी, ब्रज पगड़ी, अहीरवाली पगड़ी, मेवाती पगड़ी, खाद्दरी पगड़ी, बागड़ी पगड़ी, बागड़ी पगड़ी, पंजाबी तूर्रेदार पगड़ी, गुज्जर पगड़ी, राजपूती पगड़ी, बिश्रोई पगड़ी, मारवाड़ी पगड़ी, रोड़ों की पगड़ी, बाणियों की पगड़ी, सुनारी पगड़ी, पाकिस्तानी की पगड़ी व मुल्तानी पगड़ी आदि का प्रचलन रहा है। लोकजीवन में परिवार के मुखिया द्वारा पगड़ी पहनने की परम्परा रही है। इसी प्रकार ठोल़े के मुखिया, पट्टी के मुखिया, पान्ने के मुखिया, गाव, गोत्र, सतगामा, अठगामा, बारहा, खाप तथा पाल़ के चौधरी द्वारा भी हरियाणवी पगड़ी बाधने की परम्परा का पालन करते रहे हैं। संशोधित : आन-बान-शान रही पगड़ी लोक सांस्कृतिक परंपराओं से पगड़ी का गहरा नाता डॉ. महासिंह पूनिया
प्रभारी, धरोहर हरियाणा संग्रहालय,
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय लोकजीवन में पगड़ी की विशेष महत्ता है। इसका इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। पगड़ी जहा एक ओर लोक सास्कृतिक परंपराओं से जुड़ी हुई है, वहीं पर सामाजिक सरोकारों से भी इसका गहरा नाता है। हरियाणा के खादर, बागर, बागड़, अहीरवाल, बृज, मेवात, कौरवी क्षेत्र सभी क्षेत्रों में पगड़ी की विविधता देखने को मिलती है।
प्राचीन काल में सिर को सुरक्षित ढंग से रखने के लिए पगड़ी का प्रयोग किया जाने लगा। पगड़ी को सिर पर धारण किया जाता है। इसलिए इस परिधान को सभी परिधानों में सर्वोच्च स्थान मिला। पगड़ी को लोकजीवन में पग, पाग, पग्गड़, पगड़ी, पगमंडासा, साफा, पेचा, फेंटा, खण्डवा, खण्डका, आदि नामों से जाना जाता है। जबकि साहित्य में पगड़ी को रूमालियो, परणा, शीशकाय, जालक, मुरैठा, मुकुट, कनटोपा, मदील, मोलिया और चिंदी आदि नामों से जाना जाता है। वास्तव में पगड़ी का मूल ध्येय शरीर के ऊपरी भाग (सिर) को सर्दी, गर्मी, धूप, लू, वर्षा आदि विपदाओं से सुरक्षित रखना रहा है, किंतु धीरे-धीरे इसे सामाजिक मान्यता के माध्यम से मान और सम्मान के प्रतीक के साथ जोड़ दिया गया, क्योंकि पगड़ी सिरोधार्य है।
हजारों वर्ष की यात्रा में पगड़ी ने अनेक रंग, रूप, आकार, प्रकार बदले किन्तु मूलरूप में कोई परिवर्तन नहीं आया। इसकी शुरुआत भगवान शिव की जटाओं से होती है। शिव अपने केशों को पगड़ी आकार रूप में बाधते थे। संभवत: आदि देवता शिव से ही प्रेरणा पाकर पगड़ी को बाधने की शुरुआत हुई। आरम्भिक काल में शिव की परम्परा से जुड़े हुए साधु-संत अपने केशों को पगड़ी-आकार में बाधने लगे। समाज में जब वर्ग-व्यवस्था की स्थापना हुई, तो पुरुषों ने केश कटवाने शुरू कर दिए, किंतु आदिकाल से चली आ रही पगड़ी की परम्परा ने केशों के स्थान पर कपड़े की पगड़ी के रूप धारण कर लिया। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर पगड़ी का परिधान तो सिंधु घाटी की सभ्यता से भी पहले था। उस समय नर और नारी दोनों ही पगड़ी पहनते थे। इस युग में इसे 'उष्राशि' के नाम से पुकारा जाता था। उस समय पगड़ी मूलत: सूत्ती कपड़े, रेज्जे, रंगीन रेशम की बनी होती थी। रामायण काल में पगड़ी को विशेष महत्ता मिली। इसी काल में पगड़ी को सम्मान के साथ जोड़ दिया गया। महाभारत काल में भी यह परम्परा ज्यों की त्यों बनी रही। शकों के समय में भी पगड़ी का चलन रहा, किंतु इस युग में लोगों ने सुरक्षा की दृष्टि से पगड़ी के स्थान पर चमड़े का टुकड़ा सिर पर रखना शुरू कर दिया। शकों और कुषाणों के बीच जो युद्ध हुआ, उसमें कुषाण विजयी रहे, किंतु वे शकों के सिर पर पगड़ीनुमा चमड़े को देखकर स्तब्ध रहे। अमादलपुर (सुघ) पुरातात्विक स्थल से खुदाई से निकली कुषाणकालीन मिट्टी की मूर्तियों पर बंधी हुई पगडिय़ा इसका पुख्ता प्रमाण हैं। इस प्रकार पगड़ी बाधने की यह परम्परा निरंतर आगे बढ़ती रही और आगे चलकर हूण, द्राविड़, मंगोलियन युग तक चली आई। भक्तिकाल में पगड़ी को विशेष दजऱ्ा मिला और इसका सम्बन्ध धर्मगुरुओं से जुड़ गया।
मुगलकाल में पगड़ी को विशेष सम्मान मिला और इसके ऊपर हीरे और मोतियों की रत्नों से जड़ी मालाएं तथा कलगिया लगाई जाने लगी। इस काल में पगडिय़ा भिन्न-भिन्न रूप धारण करने लगी। सिर पर पहले टोपी या कुल्लाह पहने जाने लगा और उसके ऊपर पगड़ी बाधी जाने लगी। पगड़ी के ऊपर खड़े हुए भाग को तुर्राह की संज्ञा भी दी गई। गर्मियों में कुल्लाह गेहूं के तिनकों से तथा सर्दियों में मोटे कपड़े से बनाया जाने लगा। इस काल में पगड़ी ने अनेक रूप धारण किए। राजा, सेनापति, युवराज सभी अलग-अलग तरह की पगडिय़ा बाधने लगे। साधारण जनता सूत्ती कपड़े की पगड़ी बाधने लगी। आगे चलकर जब भारत में अंग्रेज लोग आए तो उन्होंने पगड़ी के स्थान पर हैट का प्रयोग शुरु किया, किंतु पारम्परिक पगड़ी ने हार नहीं मानी। सिख गुरुओं ने आगे चलकर पगड़ी की परम्परा को धर्म के साथ जोड़ा। लोकजीवन में इसका संबंध संस्कारों से भी जुड़ा हुआ है। यहा पर जाति के आधार पर भी पगडिय़ों के अलग-अलग रंग-रूप तथा आकार देखने को मिलते हैं। देश की आजादी के समय पगड़ी संभाल जट्टा गीत के माध्यम से देशभक्ति समाज की लाज़ बचाने का संदेश दिया गया, इससे भला कौन परिचित नहीं है? हरियाणा में धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र, जाति के आधार पर भी पगड़ी बाधने की परम्परा रही है। हिन्दु पगड़ी, मुस्लिम पगड़ी, सिक्ख पगड़ी, आर्यसमाजी पगड़ी, ब्रज पगड़ी, अहीरवाली पगड़ी, मेवाती पगड़ी, खाद्दरी पगड़ी, बागड़ी पगड़ी, बागड़ी पगड़ी, पंजाबी तूर्रेदार पगड़ी, गुज्जर पगड़ी, राजपूती पगड़ी, बिश्रोई पगड़ी, मारवाड़ी पगड़ी, रोड़ों की पगड़ी, बाणियों की पगड़ी, सुनारी पगड़ी, पाकिस्तानी की पगड़ी व मुल्तानी पगड़ी आदि का प्रचलन रहा है। लोकजीवन में परिवार के मुखिया द्वारा पगड़ी पहनने की परम्परा रही है। इसी प्रकार ठोल़े के मुखिया, पट्टी के मुखिया, पान्ने के मुखिया, गाव, गोत्र, सतगामा, अठगामा, बारहा, खाप तथा पाल़ के चौधरी द्वारा भी हरियाणवी पगड़ी बाधने की परम्परा का पालन करते रहे हैं।
-डॉ. महासिंह पूनिया
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