कुएं से पानी निकालने के लिए जरूरी था रहट
लोक पारंपरिक दृष्टि से सिंचाई के साधनों में रहट की विशेष महत्ता है। सत्तर के दशक तक रहट गांवों में आसानी से देखा जा सकता था।
लोक पारंपरिक दृष्टि से सिंचाई के साधनों में रहट की विशेष महत्ता है। सत्तर के दशक तक रहट प्रमुख आवश्यकताओं में थी। रहट में बैलों एवं ऊंट को जोतने की परंपरा रही है। सामाजिक दृष्टि से रहट लोक संचार का सामुदायिक स्थल था। जिस किसान के पास रहट नहीं होता था वह अपने पड़ोसी किसान के रहट से अपने खेत सींचने का काम करता था।
सिंचाई के लिए कुओं से पानी निकालने के लिए बनाए गए यंत्र विशेष को रहट, रंहट, रहटा, अरहट्ठ, चरखा, घाटीयंत्र, अरहट, अरघटक, पिरिया आदि नामों से भी जाना जाता है। वेदों में अरगराट (अरघट्ट) शब्द का प्रयोग जलयंत्र के रूप में हुआ है, जिसका अभिप्राय है कि ऐसा कुआ, जिस पर रहट से सिंचाई होती हो। दरअसल, जिस कुएं में सिंचाई के लिए रहट का प्रयोग होता है, उसी को रहटआला कुआं कहा जाता है। पक्के कुएं में ही रहट की स्थापना होती है। रहट में मूलत: तीन चक्कर होते हैं, जिन्हें घड़ी के चक्रों की भाति एक-दूसरे से व्यवस्थित करके पानी निकाला जाता है। सबसे पहले रहट की स्थापना करने के लिए कुएं के बीचों-बीच एक लकड़ी रखी जाती है, जिसे बड़सा तथा बरसा कहते हैं। कुएं के ऊपर रहने वाले एक चक्र और बाहर के यंत्रों को जोड़ने वाला लोहे का एक मोटा और लंबा डंडा होता है, जिसे लट्ठू कहते हैं। लट्ठू के कुएं वाले छोर पर लोहे के दो बड़े चक्र लगे होते हैं, जो सामानांतर रूप से लोहे की सलाखों से जुड़े हुए होते हैं। इन्हें बेड़ अथवा बाड़ कहते हैं। इसी बाड़ के ऊपर लोहे की बालटियों एवं टींडरों को जोड़कर एक माला का स्वरूप प्रदान किया जाता है, जो बेड़ के ऊपर घुमकर कुएं के अंदर से पानी लाती हैं। बाल्टिया जब अंदर से आती हैं, तो वह सीधी होती हैं। कुएं के ऊपरी भाग पर जब उनका मुंह नीचे की तरफ होता है, तो उनका भरा हुआ पानी पाड़छे में गिरता है और इस प्रकार एक के बाद एक बाल्टी पानी भरकर लाती रहती हैं और लगातार बाल्टिया तथा टींडरों के माध्यम से पानी कुएं से बाहर निकलता रहता है। जब तक लोकजीवन में लोहे का प्रयोग नहीं होता था, तो उस समय लोग बाल्टियों की जगह मिट्टी के मटके, घड़े बाधकर पानी की सिंचाई किया करते थे। लोहे की माल के स्थान पर लोकजीवन में लोग मटकों को मूंज की रस्सियों की बेड़ बनाकर उस पर बाधा करते थे। रहट में मूंज की बेड़ के दोनों चक्रों को जोड़ने वाली सलाखों पर बाल्टियों के टिकाव के लिए लोहे की पत्तिया लगी होती हैं, जिन्हें फली तथा खुरपी कहा जाता है। बाल्टियों को एक-दूसरे से जोड़ने वाली कीलें रेड्ढ़ी कहलाती हैं। बाल्टियों का पानी लोहे के पतराल के जिस भाग पर गिरता है, उसको थाल कहा जाता है, जबकि इस पानी को आगे की तरफ ले जाने वाली लोहे की नाली को पतनाल तथा पतरहाल कहा जाता है। कुएं के बाहर पानी गिरने के स्थान को पाड़छे एवं पाड़ज्छा की संज्ञा दी गई है। रहट को चलाने के लिए लाठ का प्रयोग किया जाता है, जिसमें बैल, ऊँट आदि पशु जुतते हैं। इस प्रकार रहट में जब बैल चलते हैं, तो उनके कंधे पर रखे हुए जूए से डंडील़ खिंचती है, डंडील पाठ को खिंचती है, पाअ्ट चकले को चलाती है, चकला चकली को चलाता है, चकली लट्टू को चलाती है, लट्टू रहट के चक्कर को चलाता है, चक्कर पर माल लगी होती है, माल से बाल्टिया घुमती है, बाल्टियों के घुमने से उनमें पानी भरता है, इस प्रकार बाल्टिया चक्र के ऊपर से घुमती हुई खाली हो जाती हैं और पतराल के माध्यम से पानी खेतों को सिंचता है। देहात में जहा पहले लोहे की बाल्टियों के स्थान पर मटकों का प्रयोग होता रहा है। वास्तव में रहट ढ़ेकली परंपरा का विकसित स्वरूप है।
प्रस्तुति : डॉ. महासिंह पूनिया
प्रभारी धरोहर हरियाणा संग्रहालय
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